Friday, July 24, 2015

प्रकृति से खिलवाड़ भटका रही है मेघों को

प्रकृति से खिलवाड़ भटका रही है मेघों को

ज्येष्ठ माह की तपन में  सुलगती वसुंधरा को श्यामल  वर्ण मेघ जब अपनी शीतल बौछारों से प्यासी धरा को तृप्त करते हैं तब यह धरा पुनः श्रृंगारित होती है। इस  मनोरम और मंगल छटा को निहारकर थलचर, नभचर एवं जलचर विभिन्न क्रीड़ाओं में लिप्त होकर आनंदित होते हैं। दो ऋतुओं के मिलने का यह अद्भुत संयोग कवियों की कल्पना को उत्प्रेरित करता है। अपनी प्रेयसी की  विरह अग्नि में जलता हुआ, महाकवि कालिदास के महाकाव्य मेघदूत का अर्धमृत यक्ष जब वर्षा ऋतु में पर्वतों पर उमड़ते काले मेघों के भव्य दृश्य को देखता है तो उसमें पुनः जीवन का संचार होता है और अपनी प्रिया तक सन्देश पहुंचाने के लिए मेघों से विनय करता है। 

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यक्ष द्वारा अनुनय एवं अपनी प्रियतमा तक पहुंचने के मार्ग का अप्रतिम चित्रण मेघदूत और कालिदास दोनों को अमरत्व प्रदान करते हैं। रामचरितमानस के किष्किन्धा कांड में तुलसीदासजी ने विभिन्न उपमाओं के साथ वर्षा ऋतु  का मनोरम वर्णन किया है। वहीं भगवान राम बादलों की गर्जन तथा आकाश में दामिनी के तांडव स्वरूप को देखकर माता सीता की सुरक्षा को लेकर सौमित्र से अपना भय प्रकट करते हैं। यही समय है जब पृथ्वी के गर्भ में पड़े लगभग निष्प्राण बीज अंकुरित हो जाते हैं, असंख्य आत्माएं शरीर धारण कर लेती हैं। छोटी-छोटी नदियां भी इस ऋतु में विस्तार पा जाती हैं और इठलाती हुई परम समागम के मार्ग पर निकल पड़ती हैं। 
आइए, साहित्य की मनोरम दुनिया से अब यथार्थ के धरातल पर चलें।  अर्थशास्त्रियों के लिए मानसून के मायने कुछ और हैं। भारत की अर्थव्यवस्था का सम्पूर्ण आधार ही मानसून है।  वर्षा की हर बूंद का हिसाब रखने वाले इन विशेषज्ञों की निगाहें आने वाले वर्ष की अर्थव्यवस्था पर होती है। मानसून के आंकड़ों की सहायता से ये आने वाले वर्ष में अनाज का उत्पादन, व्यापार-व्यवसाय की स्थिति और सकल उत्पाद (जीडीपी ) का अनुमान लगाते हैं। पीने के पानी की उपलब्धता एवं बिजली उत्पादन भी मानसून पर निर्भर है।  
दूसरी ओर वैज्ञानिकों के लिए मानसून सिस्टम, प्राणी संसार को प्रकृति की  एक असाधारण देन है। इस सिस्टम को समझने और इसका गणितीय आकलन करने की वैज्ञानिकों की क्षमता को हर वर्ष चुनौती मिलती है। लगभग छह महीने तक भारत भूमि से अरब सागर और दक्षिण पश्चिमी हिन्द महासागर की ओर बहने वाली हवाएं जब विपरीत दिशा में बहने लगती हैं तब भारत में वर्षा ऋतु का आगाज़ होता है। ग्रीष्म ऋतु में ताप से पृथ्वी की हवाएं गर्म होकर आसमान की ओर उठती हैं जिससे कम दबाव का क्षेत्र बनता है।  इस कम दबाव के क्षेत्र को भरने आर्द्र मानसूनी हवाएं बादलों के साथ पहुंच जाती हैं और इस तरह मानसून पूरे भारत में विस्तार ले लेता है। 
मानसून सिस्टम भारत  के लिए एक वरदान है क्योंकि ये मानसूनी हवाएं हमारे ग्रीष्म काल को छोटा कर देती हैं।  यदि ये हवाएंन हों तो सितम्बर माह तक ग्रीष्म ऋतु जारी रहती। इसकी तुलना में यदि अरब देशों की बात की जाये तो यहां मानसून सिस्टम न होने से ग्रीष्म काल पूरा छह माह का होता है जो सितम्बर तक जारी रहता है। यह तब तक चलता है जब तक कि सूर्य नारायण दक्षिणायन यानि दक्षिणी गोलार्ध में प्रवेश न कर लें। 
विधाता का भी क्या अद्भुत  गणित है कि यदि दो-चार दिन इधर-उधर छोड़ दें तो हर वर्ष 1 जून को मानसून भारत की दक्षिण पश्चिमी  सीमा पर दस्तक देती है। प्रकृति ने तो अपने कायदे बांध रखे हैं किन्तु मनुष्य अपनी सीमाओं को लांघ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग से बढ़ती पृथ्वी की उष्णता, प्रकृति की चाल में मनुष्य का सीधे-सीधे हस्तक्षेप है। प्राकृतिक सम्पदा का दोहन मनुष्य की मजबूरी है किन्तु इसकी अति मनुष्य की अर्थ लिप्सा का परिणाम है। स्पष्ट है कि भारतीय उपमहाद्वीप का मानसून सिस्टम इस उपमहाद्वीप की जीवन रेखा है और यदि हम इस सिस्टम के साथ खिलवाड़ जारी रखते हैं तो हमें नतीजे भी भुगतने को तैयार रहना होगा। इसके कई संकेत कश्मीर में निरंतर आ रही बाढ़ों में, चेरापूंजी में वर्षों से रिकॉर्डतोड़ में आ रही कमी में, कहीं अनावृष्टि तो कहीं अतिवृष्टि में मिलने लगे हैं। 
संतोष की बात यह है कि नई पीढ़ी ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को समझती है और इस प्रक्रिया को रोकने के लिए प्रतिबद्ध है। इस घातक प्रक्रिया को रोकने के लिए चिंतित और क्रियाशील हैं। विश्वास है कि खतरों के बहुत बढ़ने के पहले ही उनकी रोकथाम के प्रयत्न सफल होंगे तब शायद फिर कोई कालिदास का यक्ष आनंदमग्न मुद्रा में अपने ठीक समय पर उभरे मानसूनी मेघों को अपनी प्रियतमा की ओर प्रेम सन्देश ले जाने को प्रेरित करेगा। भारत भूमि अपने स्वर्णिम अतीत की भांति सदा 'शस्य श्यामलाम' रहे यही इस लेखक की कामना है।

Sunday, July 19, 2015

तंत्र-सूत्र—विधि-05

भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार को मन के सामने करो। फिर सहस्‍त्रार तक रूप को श्‍वास-तत्‍व से, प्राण से भरने दो। वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा।

यह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस इसे लेकर यूनान वापस गए। और वह पश्‍चिम के समस्‍त रहस्‍यवाद के आधार बन गए। पश्‍चिम में अध्‍यात्‍मवाद के वे पिता है। यह विधि बहुत गहरी विधियों में ऐ एक है। इसे समझने की कोशिश करो।
‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर करो।‘’
आधुनिक शरीर-शस्‍त्र कहता है, वैज्ञानिक शोध कहती है कि दो भृकुटियों के बीच में ग्रंथि है वह शरीर का सबसे रहस्‍यपूर्ण भाग है। जिसका नाम पाइनियल ग्रंथि है। यही तिब्‍बतियों की तीसरी आँख है। और यही है शिव का नेत्र। तंत्र के शिव का त्रिनेत्र। दो आंखों के बीच एक तीसरी आँख भी है। लेकिन यह सक्रिय नहीं है। यह है, और यह किसी भी समय सक्रिय हो सकती है। निसर्गत: यह सक्रिय नहीं है। इसको सक्रिय करने के लिए संबंध में तुम को कुछ करना पड़ेगा। यह अंधी नहीं है, सिर्फ बंद है। यह विधि तीसरी आँख को खोलने की विधि है।
‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर…..।‘’
आंखे बंद कर लो और फिर दोनों आंखों को बंद रखते हुए भौंहों के बीच में दृष्‍टि को स्‍थिर करो—मानो कि दोनों आंखों से तुम देख रहे हो। और समग्र अवधान को वही लगा दो।
यह विधि एकाग्र होने की सबसे सरल विधियों में से एक है। शरीर के किसी दूसरे भाग में इतनी आसानी से तुम अवधान को नहीं उपलब्‍ध हो सकते। यह ग्रंथि अवधान को अपने में समाहित करने में कुशल है। यदि तुम इस पर अवधान दोगे तो तुम्‍हारी दोनों आंखे तीसरी आँख से सम्‍मोहित हो जाएंगी। वे थिर हो जाएंगी, वे वहां से नहीं हिल सकेंगी। यदि तुम शरीर के किसी दूसरे हिस्‍से पर अवधान दो तो वहां कठिनाई होगी। तीसरी आँख अवधान को पकड़ लेती है। अवधान को खींच लेती है। अवधान के लिए वह चुंबक का काम करती है।
इसलिए दुनिया भी की सभी विधियों में इसका समावेश किया गया है। अवधान को प्रशिक्षित करने में यह सरलतम है, क्‍योंकि इसमे तुम ही चेष्‍टा नही करते, यह ग्रंथि भी तुम्‍हारी मदद करती है। यह चुंबकीय है। तुम्‍हारे अवधान को यह बलपूर्वक खींच लेती है।
तंत्र के पुराने ग्रंथों में कहा गया है कि अवधान तीसरी आँख का भोजन है। यह भूखी है; जन्‍मों-जन्‍मों से भूखी है। जब तुम इसे अवधान देते हो यह जीवित हो उठती है। इसे भोजन मिल गया है। और जब तुम जान लोगे कि अवधान इसका भोजन है, जान लोगे कि तुम्‍हारे अवधान को यह चुंबक की तरह खींच लेती है। तब अवधान कठिन नहीं रह जाएगा। सिर्फ सही बिंदु को जानना है।
इस लिए आँख बंद कर लो, और अवधान को दोनों आंखों के बीच में घूमने दो और उस बिंदू को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के करीब होगें। अचानक तुम्‍हारी आंखे थिर हो जाएंगी। और जब उन्‍हें हिलाना कठिन हो जाए तब जानो कि सही बिंदु मिल गया।
‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार को मन के सामने रखो।‘’
अगर यह अवधान प्राप्‍त हो जाए तो पहली बार एक अद्भुत बात तुम्‍हारे अनुभव में आएगी। पहली बार तुम देखोगें कि तुम्‍हारे विचार तुम्‍हारे सामने चल रहे है, तुम साक्षी हो जाओगे। जैसे कि सिनेमा के पर्दे पर दृश्‍य देखते हो, वैसे ही तुम देखोगें कि विचार आ रहे है, और तुम साक्षी हो। एक बार तुम्‍हारा अवधान त्रिनेत्र-केंद्र पर स्‍थिर हो जाए तुम तुरंत विचारों के साक्षी हो जाओगे।
आमतौर से तुम साक्षी नहीं होते, तुम विचारों के साथ तादात्म्य कर लेते हो। यदि क्रोध है तो तुम क्रोध हो जाते हो। यदि एक विचार चलता है तो उसके साक्षी होने की बजाएं तुम विचार के साथ एक हो जाते हो। उससे तादात्‍म्‍य करके साथ-साथ चलने लगते हो। तुम विचार ही बन जाते हो, विचार का रूप ले लेते हो, जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध बन जाते हो। और जब लोभ उठता है तब लोभ बन जाते हो। कोई भी विचार तुम्‍हारे साथ एकात्‍म हो जाता है। और उसके ओर तुम्‍हारे बीच दूरी नहीं रहती।
लेकिन तीसरी आँख पर स्‍थिर होते ही तुम एकाएक साक्षी हो जाते हो। तीसरी आँख के जरिए तुम साक्षी बनते हो। इस शिवनेत्र के द्वारा तुम विचारों को वैसे ही चलता देख सकते हो जैसे आसमान पर तैरते बादलों को, या रहा पर चलते लोगो को देखते हो।
जब तुम अपनी खिड़की से आकाश कोया रहा चलते लोगों को देखते हो तब तुम उनसे तादात्‍म्‍य नहीं करते। तब तुम अलग होते हो, मात्र दर्शक रहते हो—बिलकुल अलग। वैसे ही अब जब क्रोध आता है तब तुम उसे एक विषय की तरह देखते हो। अब तुम यह नहीं सोचते कि मुझे क्रोध हुआ। तुम यही अनुभव करते हो कि तुम क्रोध से घिरे हो। क्रोध की एक बदली तुम्‍हारे चारो और घिर गई। और जब तुम खुद क्रोध नहीं रहे तब क्रोध नापुंसग हो जाता है। तब वह तुमको नहीं प्रभावित कर सकता। तब तुम अस्‍पर्शित रह जाते हो। क्रोध आता है और चला जाता है। और तुम अपने में केंद्रित रहते हो।
यह पाँचवीं विधि साक्षित्‍व को प्राप्‍त करने की विधि है।
‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार को मन के सामने करो।‘’
अब अपने विचारों को देखो, विचारों का साक्षात्‍कार करो।
‘’फिर सहस्‍त्रार तक रूप को श्‍वास तत्‍व से प्राण से भरने दो। वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा।‘’
जब अवधान भृकुटियों के बीच शिवनेत्र के केंद्र पर स्‍थिर होता है। तब दो चीजें घटित होती है।
और यही चीज दो ढंगों से हो सकती है। एक, तुम साक्षी हो जाओ तो तुम तीसरी आँख पर थिर हो जाते हो। साक्षी हो जाओ, जो भी हो रहा हो उसके साक्षी हो जाओ। तुम बीमार हो, शरीर में पीड़ा है, तुम को दुःख और संताप है, जो भी हो, तुम उसके साक्षी रहो, जो भी हो, उससे तादात्‍म्‍य न करो। बस साक्षी रहो—दर्शक भर। और यदि साक्षित्व संभव हो जाए, तो तुम तीसरे नेत्र पर स्‍थिर हो जाओगे।
इससे उलटा भी हो सकता है। यदि तुम तीसरी आँख पर स्‍थिर हो जाओ, तो साक्षी हो जाओगे।। ये दोनों एक ही बात है।
इसलिए पहली बात: तीसरी आँख पर केंद्रित होते ही साक्षी आत्‍मा का उदय होगा। अब तुम अपने विचारों का सामना कर सकते हो। और दूसरी बात: और अब तुम श्‍वास-प्रश्‍वास की सूक्ष्‍म और कोमल तरंगों को भी अनुभव कर सकते हो। अब तुम श्‍वसन के रूप को ही नहीं, उसके तत्‍व को , सार को, प्राण को भी समझ सकते हो।
पहले तो यह समझने की कोशिश करें कि ‘’रूप’’ और ‘’श्‍वास-तत्‍व’’ का क्‍या अर्थ है। जब तुम श्‍वास लेते हो, तब सिर्फ वायु की ही श्‍वास नहीं लेते। वैज्ञानिक तो यही कहते है कि तुम वायु की ही श्‍वास लेते हो। जिसमें आक्‍सीजन, हाइड्रोजन तथा अन्‍य तत्‍व रहते है। वे कहते है कि तुम वायु की श्‍वास लेते हो।
लेकिन तंत्र कहता है कि हवा तो मात्र वाहन है, असली चीज नहीं है। असल में तुम प्राण की श्‍वास लेते हो। हवा तो माध्‍यम भर है। प्राण उसका सत्‍व है, सार है। तुम न सिर्फ हवा की, बल्‍कि प्राण की श्‍वास लेते हो।
आधुनिक विज्ञान अभी नहीं जान सका है कि प्राण जैसी कोई वस्‍तु भी है। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं ने कुछ रहस्‍यमयी चीज का अनुभव किया है। श्‍वास में सिर्फ हवा हम नहीं लेते, वह बहुत से आधुनिक शोधकर्ताओं ने अनुभव किया है। विशेषकर एक नाम उल्‍लेखनीय है। वह है जर्मन मनोवैज्ञानिक विलहेम रेख का। जिसने इसे आर्गन एनर्जी या जैविक ऊर्जा का नाम दिया है। वह प्राण ही है। वह कहता है कि जब आप श्‍वास लेते है, तब हवा तो मात्र आधार है, पात्र है, जिसके भीतर एक रहस्‍यपूर्ण तत्‍व है, जिसे आर्गन या प्राण या एलेन वाइटल कह सकते है। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म है। वास्‍तव में वह भौतिक नहीं है। पदार्थ गत नहीं है। हवा भौतिक है, पात्र भौतिक है; लेकिन उसके भीतर से कुछ सूक्ष्‍म, अलौकिक तत्‍व चल रहा है।
इसका प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। जब तुम किसी प्राणवान व्‍यक्‍ति के पास होते हो, तो तुम अपने भीतर किसी शक्‍ति को उगते देखते हो। और जब किसी बीमार के पास होते हो, तो तुमको लगता है कि तुम चूसे जा रहे हो। तुम्‍हारे भीतर से कुछ निकाला जा रहा है। जब तुम अस्‍पताल जाते हो, तब थके-थके क्‍यों अनुभव करते हो? वहां चारों ओर से तुम चूसे जाते हो। अस्‍पताल का पूरा माहौल बीमार होता है और वहां सब किसी को अधिक प्राण की, अधिक एलेन वाइटल की जरूरत है। इसलिए वहां जाकर अचानक तुम्‍हारा प्राण तुमसे बहने लगता है। जब तुम भीड़ में होते हो, तो तुम घुटन महसूस क्‍यों करते हो। इसलिए कि वहां तुम्‍हारा प्राण चूसा जाने लगता है। और जब तुम प्रात: काल अकेले आकाश के नीचे या वृक्षों के बीच होते हो, तब फिर अचानक तुम अपने में किसी शक्‍ति का, प्राण का उदय अनुभव करते हो। प्रत्‍येक का एक खास स्‍पेस की जरूरत है। और जब वह स्‍पेस नहीं मिलता है तो तुमको घुटन महसूस होती है।
विलहेम रेख ने कई प्रयोग किए। लेकिन उसे पागल समझा गया। विज्ञान के भी अपने अंधविश्‍वास है। और विज्ञान बहुत रूढ़िवादी होता है। विज्ञान अभी भी नहीं समझता है कि हवा से बढ़कर कुछ है; वह प्राण है। लेकिन भारत सदियों से उस पर प्रयोग कर रहा है।
तुमने सुना होगा—शायद देखा भी हो—कि कोई व्‍यक्‍ति कई दिनों के लिए भूमिगत समाधि में प्रवेश कर गया। जहां हवा का कोई प्रवेश नहीं था। 1880 में मिस्‍त्र में एक आदमी चालीस वर्षों के लिए समाधि में चला गया था। जिन्‍होंने उसे गाड़ा था वे सभी मर गए। क्‍योंकि वह 1920 में समाधि से बहार आने वाला था।
1920 में किसी को भरोसा नहीं था कि वह जीवित मिलेगा। लेकिन वह जीवित था और उसके बाद भी वह दस वर्षों तक जीवित रहा। वह बिलकुल पीला पड़ गया था, परंतु जीवित था। और उसको हवा मिलने की कोई संभावना नहीं थी।
डॉक्टरों ने तथा दूसरों ने उससे पूछा कि इसका रहस्‍य क्‍या है? उसने कहां हम नहीं जानते; हम इतना ही जानते है कि प्राण कही भी प्रवेश कर सकता है। और वह है। हवा वहां नहीं प्रवेश कर सकती, लेकिन प्राण कर सकता है।
एक बार तुम जान जाओ कि श्‍वास के बिना भी कैसे तुम प्राण को सीधे ग्रहण कर सकते हो, तो तुम सदियों तक के लिए भी समाधि में जा सकते हो।
तीसरी आँख पर केंद्रित होकर तुम श्‍वास के सार तत्‍व को, श्‍वास को नहीं, श्‍वास के सार तत्‍व प्राण को देख सकेत हो। और अगर तुम प्राण को देख सके, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लग सकती है, क्रांति घटित हो सकती है।
सूत्र कहता है: ‘’सहस्त्रार तक रूप को प्राण से भरने दो।‘’
और जब तुम को प्राण का एहसास हो, तब कल्‍पना करो कि तुम्‍हारा सिर प्राण से भर गया है। सिर्फ कल्‍पना करो, किसी प्रयत्‍न की जरूरत नहीं है। और मैं बताऊंगा कि कल्‍पना कैसे काम करती है। तब तुम त्रिनेत्र-बिंदु पर स्‍थिर हो जाओ तब कल्‍पना करो, और चीजें आप ही और तुरंत घटित होने लगती है।
अभी तुम्‍हारी कल्‍पना भी नपुंसक है। तुम कल्‍पना किए जाते हो और कुछ भी नहीं होता। लेकिन कभी-कभी अनजाने साधारण जिंदगी में भी चीजें घटित होती है। तुम अपने मित्र की सोच रहे हो और अचानक दरवाजे पर दस्‍तक होती है। तुम कहते हो कि सांयोगिक था कि मित्र आ गया। कभी तुम्‍हारी कल्‍पना संयोग की तरह भी काम करती है।
लेकिन जब भी ऐसा हो, तो याद रखने की चेष्‍टा करो और पूरी चीज का विश्‍लेषण करो। जब भी लगे कि तुम्‍हारी कल्‍पना सच हुई है। तुम भीतर जाओ और देखो। कहीं न कहीं तुम्‍हारा अवधान तीसरे नेत्र के पास रहा होगा। दरअसल यह संयोग नहीं था। यह वैसा दिखता है; क्‍योंकि गुह्म विज्ञान का तुमको पता नहीं है। अनजाने ही तुम्‍हारा मन त्रिनेत्र केंद्र के पास चला गया होगा। और अवधान यदि तीसरी आँख पर है तो किसी घटना के सृजन के लिए उसकी कल्‍पना काफी है।
यह सूत्र कहता है कि जब तुम भृकुटियों के बीच स्‍थिर हो और प्राण को अनुभव करते हो, तब रूप को भरने दो। अब कल्‍पना करो कि प्राण तुम्‍हारे पूरे मस्‍तिष्‍क को भर रहे है। विशेषकर सहस्‍त्रार को जो सर्वोच्‍च मनस केंद्र है। उस क्षण तुम कल्‍पना करो। और वह भर जाएगा। कल्‍पना करो कि वह प्राण तुम्‍हारे सहस्‍त्रार से प्रकाश की तरह बरसेगा। और वह बरसने लगेगा। और उस प्रकाश की वर्षा में तुम ताजा हो जाओगे। तुम्‍हारा पुनर्जन्‍म हो जाएगा। तुम बिलकुल नए हो जाओगे। आंतरिक जन्‍म का यही अर्थ है।
यहां दो बातें है। एक, तीसरी आँख पर केंद्रित होकर तुम्‍हारी कल्‍पना पुंसत्‍व को, शुद्धि को उपलब्‍ध हो जाती है। यही कारण है कि शुद्धता पर, पवित्रता पर इतना बल दिया गया है। इस साधना में उतरने के पहले शुद्ध बने।
तंत्र के लिए शुद्धि कोई नैतिक धारणा नहीं हे। शुद्धि इसलिए अर्थपूर्ण है कि यदि तुम तीसरी आँख पर स्‍थिर हुए और तुम्‍हारा मन अशुद्ध रहा, तो तुम्‍हारी कल्‍पना खतरनाक सिद्ध हो सकती है—तुम्‍हारे लिए भी और दूसरें के लिए भी। यदि तुम किसी की हत्‍या करने की सोच रहे हो, उसका महज विचार भी मन में है। तो सिर्फ कल्‍पना से उस आदमी की मृत्‍यु घटित हो जाएगी। यही कारण है कि शुद्धता पर इतना जोर दिया जाता है।
पाइथागोरस को विशेष उपवास और प्राणायाम से गुजरने को कहा गया; क्‍योंकि यहां बहुत खतरनाक भूमि से यात्री गुजरता है। जहां भी शक्‍ति है, वहां खतरा है। यदि मन अशुद्ध है तो शक्‍ति मिलने पर आपके अशुद्ध विचार शक्‍ति पर हावी हो जाएंगे।
कई बार तुमने हत्‍या करने की सोची है; लेकिन भाग्‍य से वहां कल्‍पना न काम नहीं किया। यदि वह काम करे, यदि वह तुरंत वास्तविक हो जाए तो वह दूसरों के लिए ही नहीं तुम्‍हारे लिए भी खतरनाक सिद्ध हो सकती है। क्‍योंकि कितनी ही बार तुमने आत्‍म हत्‍या की सोची है। अगर मन तीसरी आँख पर केंद्रित है तो आत्‍महत्‍या का विचार भी आत्‍महत्‍या बन जाएगा। तुमको विचार बदलने का समय भी नहीं मिलेगा। वह तुरंत घटित हो जाएगी।
तुमने किसी को सम्‍मोहित होते देखा है। जब कोई सम्‍मोहित किया जाता है, तब सम्मोहन विद जो भी कहता है, सम्‍मोहित व्‍यक्‍ति तुरंत उसका पालन करता है। आदेश कितना ही बेहूदा हो तर्कहीन हो असंभव ही क्‍या न हो। सम्‍मोहित व्‍यक्‍ति उसका पालन करता है। क्‍या होता है?
यह पांचवी विधि सब सम्मोह न की जड़ में है। जब कोई सम्‍मोहित किया जाता है, तब उसे एक विशेष बिंदू पर, किसी प्रकाश पर या दीवार पर लगे किसी चिन्‍ह पर या किसी भी चीज पर या सम्‍मोहक की आँख पर ही अपनी दृष्‍टि केंद्रित करने को कहा जाता है। और जब तुम किसी खास बिंदू पर दृष्‍टि केंद्रित करते हो, उसके तीन मिनट के अंदर तुम्‍हारा आंतरिक अवधान तीसरी आँख की और बहने लगता है। तुम्‍हारे चेहरे की मुद्रा बदलने लगती है। और सम्‍मोहन विद जानता है कि कब तुम्‍हारा चेहरा बदलने लगा। एकाएक चेहरे से सारी शक्‍ति गायब हो जाती है। वह मृत वत हो जाता है। मानों गहरी तंद्रा में पड़े हो। जब ऐसा होता है, सम्‍मोहक को उसका पता हो जाता है। उसका अर्थ हुआ कि तीसरी आँख अवधान को पी रही है। आपका चेहरा पीला पड़ गया है। पूरी ऊर्जा त्रिनेत्र केंद्र की और बह रही है।
अब सम्मोहित करने वाला तुरंत जान जाता है। कि जो भी कहा जाएगा। वह घटित होगा। वह कहता है कि अब तुम गहरी नींद में जा रहे हो, और तुम तुरंत सो जाते हो। वह कहता है कि अब तुम बेहोश हो रहे हो और तुम बेहोश हो जाते हो। अब कुछ भी किया जा सकता है। अब अगर वह कहे कि तुम नेपोलियन या हिटलर हो गए हो तो तुम हो जाओगे। तुम्‍हारी मुद्रा बदल जायेगी। आदेश पाकर तुम्‍हारा अचेतन उसका वास्‍तविक बना देता है। अगर तुम किसी रोग से पीडित हो तो रोग को हटने का आदेश देगा, और मजेदार बात रोग दूर हो जायेगा। या कोई नया रोग भी पैदा किया जा सकता है।
यही नहीं, सड़क पर से एक कंकड़ उठा कर अगर सम्मोहन विद तुम्‍हारी हथेली पर रख दे और कहे कि यह अंगारा है तो तुम तेज गर्मी महसूस करोगे और तुम्‍हारी हथेली जल जाएगी—मानसिक तल पर नहीं, वास्‍तव में ही। वास्‍तव में तुम्‍हारी चमड़ी जब लायेगी और तुम्‍हें जलन महसूस होगी। क्‍या होता है? अंगारा नहीं, बस एक मामूली कंकड़ है वह भी ठंडा, फिर भी जलना ही नहीं हाथ पर फफोले तक उगा देता है।
तुम तीसरी आँख पर केंद्रित हो और सम्मोहन विद तुमको सुझाव देता है और वह सुझाव वास्‍तविक हो जाता है। यदि सम्मोहन विद कहे कि अब तुम मर गए, तो तुम तुरंत मर जाओगे। तुम्‍हारी ह्रदय गति रूक जायेगी। रूक ही जाएगी।
यह होता है त्रिनेत्र के चलते। त्रिनेत्र के लिए कल्‍पना और वास्‍तविकता दो चीजें नहीं है। कल्‍पना ही तथ्‍य है। कल्‍पना करें और वैसा ही जाएगा। स्‍वप्‍न और यथार्थ में फासला नहीं है। स्‍वप्‍न देखो और सच हो जायेगा।
यही कारण है कि शंकर ने कहा कि यह संसार परमात्‍मा के स्‍वप्‍न के सिवाय और कुछ नहीं है—यह परमात्‍मा की माया है। यह इसलिए कि परमात्‍मा तीसरी आँख में बसता है—सदा, सनातन से। इसलिए परमात्‍मा जी स्‍वप्‍न देखता है वह सच हो जाता है। और यदि तुम भी तीसरी आँख में थिर हो जाओ तो तुम्‍हारे स्‍वप्‍न भी सच होने लगेंगे।
सारिपुत्र बुद्ध के पास आया। उसने गहरा धान किया। तब बहुत चीजें घटित होने लगीं, बहुत तरह के दृश्‍य उसे दिखाई देने लगे। जो भी ध्‍यान की गहराई में जाता है। उसे यह सब दिखाई देने लगता है। स्‍वर्ग और नरक; देवता और दानव, सब उसे दिखाई देने लगे। और वह ऐसे वास्‍तविक थे कि सारिपुत्र बुद्ध के पास दौड़ा आया। और बोला कि ऐसे-ऐसे दृश्‍य दिखाई देते है। बुद्ध ने कहा, वे कुछ नहीं है। मात्र स्‍वप्‍न है।
लेकिन सारिपुत्र ने कहा कि वे इतने वास्‍तविक है कि मैं कैसे उन्‍हें स्‍वप्‍न कहूं? जब एक फूल दिखाई पड़ता है, वह फूल किसी भी फूल से अधिक वास्‍तविक मालूम पड़ता है। उसमे सुगंध है। उसे मैं छू सकता हूं। अभी जो मैं आपको देखता हूं वह उतना वास्‍तविक नहीं है; आप जितना वास्‍तविक मेरे सामने है, वह फूल उससे अधिक वास्‍तविक है। इसलिए कैसे मैं भेद करूं कि कौन सच है, और कौन स्‍वप्‍न।
बुद्ध ने कहा, अब चूंकि तुम तीसरी आँख में केंद्रित हो, इसलिए स्‍वप्‍न और यथार्थ एक हो गए है। जो भी स्‍वप्‍न तुम देखोगें सच हो जाएगा।
और उससे ठीक उलटा भी घटित हो सकता है। जो त्रिनेत्र पर थिर हो गया, उसके लिए स्‍वप्‍न यथार्थ हो जाएगा। और यथार्थ स्‍वप्‍न हो जाएगा। क्‍योंकि जब तुम्‍हारा स्‍वप्‍न सच हो जाता है तब तुम जानते हो कि स्‍वप्‍न और यथार्थ में बुनियादी भेद नहीं है।
इसलिए जब शंकर कहते है कि सब संसार माया है, परमात्‍मा का स्‍वप्‍न है, तब यह कोई सैद्धांतिक प्रस्‍तावना या कोई मीमांसक वक्‍तव्‍य नहीं है। यह उस व्‍यक्‍ति का आंतरिक अनुभव है जो शिवनेत्र में थिर हो गया है।
अंत: जब तुम तीसरे नेत्र पर केंद्रित हो जाओ तब कल्‍पना करो कि सहस्‍त्रार से प्राण बरस रहा है; जैसे कि तुम किसी वृक्ष के नीचे बैठे हो और फूल बरस रहे है, या तुम आकाश के नीचे हो और कोई बदली बरसने लगी। या सुबह तुम बैठे हो और सूरज उग रहा है और उसकी किरणें बरसने लगी है। कल्‍पना करो और तुरंत तुम्‍हारे सहस्‍त्रार से प्रकाश की वर्षा होने लगेगी। यह वर्षा मनुष्‍य को पुनर्निर्मित करती है, उसका नया जन्‍म दे जाती है। तब उसका पुनर्जन्‍म हो जाता है।

ओशो

तंत्र-सूत्र—विधि—02 (ओशो)

जब श्‍वास नीचे से ऊपर की और मुड़ती है, और फिर जब श्‍वास ऊपर से नीचे की और मुड़ती है—इन दो मोड़ों के द्वारा उपलब्‍ध हो।
तंत्र-सूत्र—विधि

थोड़े फर्क के साथ यह वही विधि है; और अब अंतराल पर न होकर मोड़ पर है। बाहर जाने वाली और अंदर जाने वाली श्‍वास एक वर्तुल बनाती है। याद रहे, वे समांतर रेखाओं की तरह नहीं है। हम सदा सोचते है कि आने वाली श्‍वास और जाने वाली श्‍वास दो समांतर रेखाओं की तरह है। मगर वे ऐसी है नहीं। भीतर आने वाली श्‍वास आधा वर्तुल बनाती है। और शेष आधा वर्तुल बाहर जाने वाली श्‍वास बनाती है।
इसलिए पहले यह समझ लो कि श्‍वास और प्रश्‍वास मिलकर एक वर्तुल बनाती है। और वे समांतर रेखाएं नहीं है; क्‍योंकि समांतर रेखाएं कही नहीं मिलती है। दूसरी यह कि आने वाली और जाने वाली श्‍वास दो नहीं है। वे एक है। वही श्‍वास भीतर आती है, बहार भी जाती है। इसलिए भीतर उसका कोई मोड़ अवश्‍य होगा। वह कहीं जरूर मुड़ती होगी। कोई बिंदु होगा, जहां आने वाली श्‍वास जाने वाली श्‍वास बन जाती होगी।
लेकिन मोड़ पर इतना जोर क्‍यों है?
क्‍योंकि शिव कहते है, ‘’जब श्‍वास नीचे से ऊपर की और मुड़ती है, और फिर जब श्‍वास ऊपर से नीचे की और मुड़ती है—इन दो मोड़ों के द्वारा उपलब्‍ध हो।‘’
बहुत सरल है। लेकिन शिव कहते है कि मोड़ों को प्राप्‍त कर लो। और आत्‍मा को उपलब्‍ध हो जाओगे। लेकिन मोड़ क्‍यों?
अगर तुम कार चलाना जानते हो तो तुम्‍हें गियर का पता होगा। हर गियर बदलते हो तो तुम्‍हें न्‍यूट्रल गियर से गुजरना पड़ता है जो कि गियर बिलकुल नहीं है। तुम पहले गियर से दूसरे गियर में जाते हो और दूसरे से तीसरे गियर में। लेकिन सदा तुम्‍हें न्‍यूट्रल गियर से होकर जाना पड़ता है। वह न्‍यूट्रल गियर घुमाव का बिंदु है। मोड़ है। उस मोड़ पर पहला गियर दूसरा गियर बन जाता है। और दूसरा तीसर बन जाता है।
वैसे ही जब तुम्‍हारी श्‍वास भीतर जाती है और घूमने लगती है तो उस वक्‍त वह न्‍यूट्रल गियर में होती है। नहीं तो वह नहीं धूम सकती। उसे तटस्‍थ क्षेत्र से गुजरना पड़ता है।
उस तटस्‍थ क्षेत्र में तुम न तो शरीर हो और न मन ही हो; न शारीरिक हो, न मानसिक हो। क्‍योंकि शरीर तुम्‍हारे अस्‍तित्‍व का एक गियर है और मन उसका दूसरा गियर है। तुम एक गियर से दूसरे गियर में गति करते हो, इस लिए तुम्‍हें एक न्‍यूट्रल गियर की जरूरत है जो न शरीर हो और न मन हो। उस तटस्‍थ क्षेत्र में तुम मात्र हो, मात्र अस्‍तित्‍व–शुद्ध, सरल, अशरीरी और मन से मुक्‍त। यही कारण है कि घुमाव बिंदु पर, मोड़ पर इतना जोर है।
मनुष्‍य एक यंत्र है—बड़ा और बहुत जटिल यंत्र। तुम्‍हारे शरीर और मन में भी अनेक गियर है। तुम्‍हें उस महान यंत्र रचना का बोध नहीं है। लेकिन तुम एक महान यंत्र हो। और अच्‍छा है कि तुम्‍हें उसका बोध नहीं है। अन्‍यथा तुम पागल हो जाओगे। शरीर ऐसा विशाल यंत्र है कि वैज्ञानिक कहते है, अगर हमें शरीर के समांतर एक कारखाना निर्मित करना पड़े तो उसे चार वर्ग मिल जमीन की जरूरत होगी। और उसका शोरगुल इतना भारी होगा कि उससे सौ वर्ग मील भूमि प्रभावित होगी।
शरीर एक विशाल यांत्रिक रचना है—विशालतम। उसमे लाखों-लाखों कोशिकांए है, और प्रत्‍येक कोशिका जीवित है। तुम सात करोड़ कोशिकाओं के एक विशाल नगर में हो; तुम्‍हारे भी तर सात करोड़ नागरिक बसते है; और सारा नगर बहुत शांति और व्‍यवस्‍था से चल रहा है। प्रतिक्षण यंत्र-रचना काम कर रही है। और वह बहुत जटिल है।
कई स्‍थलों पर इन विधियों का तुम्‍हारे शरीर और मन की एक यंत्र-रचना के साथ वास्‍ता पड़ेगा। लेकिन याद रखो। कि सदा ही जोर उन बिंदुओं पर रहेगा जहां तुम अचानक यंत्र-रचना के अंग नहीं रह जाते हो। जब एकाएक तुम यंत्र रचना के अंग नहीं रहे तो ये ही क्षण है जब तुम गियर बदलते हो।
उदाहरण के लिए, रात जब तुम नींद में उतरते हो तो तुम्‍हें गियर बदलना पड़ता है। कारण यह है कि दिन में जागी हुई चेतना के लिए दूसरे ढंग की यंत्र रचना की जरूरत रहती है। तब मन का भी एक दूसरा भाग काम करता है। और जब तुम नींद में उतरते हो तो वह भाग निष्‍क्रिय हो जाता है। और अन्‍य भाग सक्रिय होता है। उस क्षण वहां एक अंतराल, एक मोड़ आता है। एक गियर बदला। फिर सुबह जब तुम जागते हो तो गियर बदलता है।
तुम चुपचाप बैठे हो और अचानक कोई कुछ कह देता है, और तुम क्रुद्ध हो जाते हो। तब तुम भिन्‍न गियर में चले गए। यही कारण है कि सब कुछ बदल जाता है। तुम क्रोध में हुए श्‍वास क्रिया बदल जायेगी। वह अस्तव्यस्त हो जायेगी। तुम्‍हारी श्‍वास क्रिया में कंपन आ जाएगा। किसी चीज को चूर-चूर कर देना चाहेगा, ताकि यह घुटन जाए। तुम्‍हारी श्‍वास क्रिया बदल जाएगी, तुम्‍हारे खून की लय दुसरी होगी। शरीर में और ही तरह का रस द्रव्‍य सक्रिय होगा। पूरी ग्रंथि व्‍यवस्‍था ही बदल जाएगी। क्रोध में तुम दूसरे ही आदमी हो जाते हो।
एक कार खड़ी है, तुम उसे स्‍टार्ट करो। उसे किसी गियर में न डालकर न्‍यूट्रल गियर में छोड़ दो। गाड़ी हिलेगी, कांपेगी, लेकिन चलेगी नहीं। वह गरम हो जाएगी। इसी तरह क्रोध में नहीं कुछ कर पाने के कारण तुम गरम हो जाते हो। यंत्र रचना तो कुछ करने के लिए सक्रिय है और तुम उसे कुछ करने नहीं देते तो उसका गरम हो जाना स्‍वाभाविक है। तुम एक यंत्र-रचना हो, लेकिन मात्र यंत्र-रचना नहीं हो। उससे कुछ अधिक हो। उस अधिक को खोजना है। जब तुम गियर बदलते हो तो भीतर सब कुछ बदल जाता है। जब तुम गियर बदलते हो तो एक मोड़ आता है।
शिव कहते है, ‘’जब श्‍वास नीचे से ऊपर की और मुड़ती है, और फिर जब श्‍वास ऊपर से नीचे की और मुड़ती है। इन दो मोड़ों के द्वारा उपलब्‍ध हो जाओ।‘’
मोड़ पर सावधान हो जाओ, सजग हो जाओ। लेकिन यह मोड़ बहुत सूक्ष्‍म है और उसके लिए बहुत सूक्ष्‍म निरीक्षण की जरूरत पड़ेगी। हमारी निरीक्षण की क्षमता नहीं के बराबर है; हम कुछ देख ही नहीं सकते। अगर मैं तुम्‍हें कहूं कि इस फूल को देखो—इस फूल को जो तुम्‍हें मैं देता हूं। तो तुम उसे नहीं देख पाओगे। एक क्षण को तुम उसे देखोगें और फिर किसी और चीज के संबंध में सोचने लगोगे। वह सोचना फूल के विषय में हो सकता है। लेकिन वह फूल नहीं हो सकता। तुम फूल के बारे में सोच सकते हो। कि देखो वह कितना सुंदर है। लेकिन तब तुम फूल से दूर हट गए। अब फूल तुम्‍हारे निरीक्षण क्षेत्र में नहीं रहा। क्षेत्र बदल गया। तुम कहोगे कि यह लाल है, नीला है, लेकिन तुम उस फूल से दूर चले गए।
निरीक्षण का अर्थ होता है: किसी शब्‍द या शाब्‍दिकता के साथ, भीतर की बदलाहट के साथ न रहकर मात्र फूल के साथ रहना। अगर तुम फूल के साथ ऐसे तीन मिनट रह जाओ, जिसमे मन कोई गति न करे, तो श्रेयस् घट जाएगा। तुम उपलब्‍ध हो जाओगे।
लेकिन हम निरीक्षण बिलकुल नहीं जानते है। हम सावधान नहीं है, सतर्क नहीं है, हम किसी भी चीज को अपना अवधान नहीं दे पाते है। हम ता यहां-वहां उछलते रहत है। वह हमारी वंशगत विरासत है, बंदर-वंश की विरासत। बंदर के मन से ही मनुष्‍य का मन विकसित हुआ है। बंदर शांत नहीं बैठ सकता। इसीलिए बुद्ध बिना हलन-चलन के बैठने पर, मात्र बैठने पर इतना जौर देते है। क्‍योंकि तब बंदर-मन का अपनी राह चलना बंद हो जाता है।
जापान में एक खास तरह का ध्‍यान चलता है जिसे वे झा झेन कहते है। झा झेन शब्‍द का जापानी में अर्थ होता है, मात्र बैठना और कुछ भी नहीं करना। कुछ भी हलचल नहीं करनी है, मूर्ति की तरह वर्षों बैठे रहना है—मृतवत्, अचल। लेकिन मूर्ति की तरह वर्षों बैठने की जरूरत क्‍या है? अगर तुम अपने श्‍वास के घुमाव को अचल मन से देख सको तो तुम प्रवेश पा जाओगे? तुम स्‍वयं में प्रवेश पा जाओगे। अंतर के भी पार प्रवेश पा जाओगे। लेकिन ये मोड़ इतने महत्‍वपूर्ण क्‍यों है?
वे महत्‍वपूर्ण है, क्‍योंकि मोड़ पर दूसरी दिशा में घूमने के लिए श्‍वास तुम्‍हें छोड़ देती है। जब वह भीतर आ रही थी तो तुम्‍हारे साथ थी; फिर जब वह बाहर जाएगी तो तुम्‍हारे साथ होगा। लेकिन घुमाव-बिंदु पर न वह तुम्‍हारे साथ है और न तुम उसके साथ हो। उस क्षण में श्‍वास तुमसे भिन्‍न है और तुम उससे भिन्‍न हो। अगर श्‍वास क्रिया ही जीवन है तो तब तुम मृत हो। अगर श्‍वास-क्रिया तुम्‍हारा मन है तो उस क्षण तुम अ-मन हो।
तुम्‍हें पता हो या न हो, अगर तुम अपनी श्‍वास को ठहरा दो तो मन अचानक ठहर जाता है। अगर तुम अपनी श्‍वास को ठहरा दो तो तुम्‍हारा मन अभी और अचानक ठहर जाएगा; मन चल नहीं सकता। श्‍वास का अचानक ठहरना मन को ठहरा देता है। क्‍यों? क्‍योंकि वे पृथक हो जाते है। केवल चलती हुई श्‍वास मन से शरीर से जुड़ी होती है। अचल श्‍वास अलग हो जाती है। और जब तुम न्‍यूट्रल गियर में होते हो।
कार चालू है, ऊर्जा भाग रही है, कार शोर मचा रही है। वह आगे जाने को तैयार है। लेकिन वह गियर में ही नहीं है। इसलिए कार का शरीर और कार का यंत्र-रचना, दोनों अलग-अलग है। कार दो हिस्‍सों में बंटी है। वह चलने को तैयार है, लेकिन गति का यंत्र उससे अलग है।
वही बात तब होती है जब श्‍वास मोड़ लेती है। उस समय तुम उसे नहीं जुड़े हो। और उस क्षण तुम आसानी से जान सकते हो कि मैं कौन हूं, यह होना क्‍या है, उस समय तुम जान सकते हो कि शरीर रूपी घर के भीतर कौन है, इस घर का स्‍वामी कौन है। मैं मात्र घर हूं या वहां कोई स्‍वामी भी है, मैं मात्र यंत्र रचना हूं, या उसके परे भी कुछ है। और शिव कहते है कि उस घुमाव बिंदु पर उपलब्‍ध हो। वे कहते है, उस मोड़ के प्रति बोधपूर्ण हो जाओ और तुम आत्‍मोपलब्‍ध हो।

ओशो

Sunday, July 12, 2015

चाणक्य की चेतावनी : युवा इन 8 बातों से करें परहेज

चाणक्य ने हर उम्र, हर वर्ग के लोगों के लिए अपने अनुभवों से संचित ज्ञान को प्रस्तुत किया है। चाणक्य ने युवाओं के लिए खास 8 बातें ऐसी बताई है जिनसे उन्हें परहेज करना चाहिए। किसी भी देश का युवा उस देश की शक्ति होते हैं। युवा देश की संस्कृति और धरोहरों के रक्षक होते हैं। आइए जानते हैं चाणक्य ने किन 8 बातों के लिए युवाओं को चेताया है कि - इनसे बचकर रहें...   

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* कामवासना :  देश के युवा को कामवासना से दूर रहना चाहिए। जब युवा इन बातों में उलझता है तो अध्ययन और सेहत पर ध्यान नहीं दे पाता है। कामवासना से वह निष्क्रिय हो जाता है। जबकि यह उम्र सीखने और सक्रिय रहने की होती है। 
 
 * क्रोध : आचार्य चाणक्य कहते हैं कि क्रोध हर इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन होता है। क्रोध में आते ही व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है। क्रोध से युवाओं को हमेशा बचना चाहिए।

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* लालच :  लालच युवाओं के अध्ययन के मार्ग में स बसे बड़ा बाधक माना जाता है। युवाओं को किसी भी चीज का लालच नहीं करना चाहिए।

* स्वाद : युवावस्था के छात्र जीवन को तपस्वी की तरह माना गया है। चाणक्य कहते हैं युवा छात्र को स्वादिष्ट भोजन की लालसा छोड़ देना चाहिए और स्वास्थ्यवर्धक संतुलित आहार लेने की कोशिश करनी चाहिए।

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*श्रृंगार :  इसे आज की भाषा में हम फैशन कह सकते हैं। युवा विद्यार्थियों को हमेशा सादा जीवनशैली अपनाना चाहिए। साफसुथरे रहें लेकिन अतिरिक्त साज-सज्जा, श्रृंगार करने वाले युवाओं का मन अध्ययन से भटकता है। अत: चाणक्य कहते हैं इनसे दूरी बनाकर रखें।

* मनोरंजन : आचार्य चाणक्य का मानना है कि छात्रों के लिए जरूरत से ज्यादा मनोरंजन नुकसानदायक हो सकता है। जितना जरूरी हो उतना ही मनोरंजन करें। अधिक मनोरंजन से युवा शक्ति का ह्रास होता है।
* नींद :  अच्छी सेहत के लिए अच्छी नींद की आवश्यकता होती है लेकिन युवा वर्ग अगर नींद से ही प्रेम करने लगे तो उनमें आलस्य की मात्रा बढ़ जाती है और समय भी उनके पास कम बचता है। चाणक्य की चेतावनी है सोने में जीवन को खोना नहीं..

* सेवा : चाणक्य की नीति कहती है सबकी सेवा करों पर अपना भी ख्याल रखो। कुछ युवा सेवा के अतिरेक में स्वयं पर ध्यान नहीं देते हैं अत: बहुमूल्य समय खो देते हैं। चाणक्य कहते हैं इस संसार में सीधे वृक्ष और सीधे लोग ही सबसे पहले काटे जाते हैं। जो अपने आप को भूलकर सेवा करता है वह अंत में खाली रह जाता है। 

विपन्नता भविष्य के लिए उत्साह का संचार करती है

सच्चाई यह है कि मनुष्य हमेशा विपन्नता में जिया है। विपन्नता की अच्छी बात यह है कि वह कभी तुम्हारी आशा को नष्ट नहीं करती। वह कभी तुम्हारे स्वप्नों के खिलाफ नहीं जाती। वह हमेशा आने वाले कल के लिए उत्साह का संचार करती है। इस विश्वास में व्यक्ति को आशा रहती है कि कल सब कुछ बेहतर हो जाएगा। यह अंधकारमय काल व्यतीत हो रहा है, शीघ्र ही प्रकाश हो जाएगा। लेकिन यह स्थिति बदल गई है।विकसित देशों में लोगों ने लक्ष्य प्राप्त कर लिया है और लक्ष्य की यह प्राप्ति विषाद का कारण है। अब कोई आशा नहीं है। आने वाला कल अंधकारमय है और परसों तो अधिक अंधेरा छा जाएगा। जिन चीजों के उन्होंने स्वप्न देखे थे, वे चीजें बहुत सुंदर थीं। अब उन्हें वे मिल गई हैं उलझनों के साथ।

कोई व्यक्ति गरीब होता है तो उसमें भूख होती है। फिर व्यक्ति संपन्न होता है मगर उसमें भूख नहीं रहती। तुम्हारे पास हर चीज होती है, मगर भूख समाप्त हो जाती है, जिसके लिए तुम इतना संघर्ष करते रहे। तुम सफल हो गए। सफलता की तरह कुछ भी असफल नहीं होता। तुम जहां पहुंचना चाहते थे, वहां पहुंच गए। लेकिन, उसके आस-पास होने वाले परिणामों की तुम्हें जानकारी नहीं थी। तुम्हारे पास लाखों डॉलर हैं, मगर तुम सो नहीं सकते। जब व्यक्ति निर्धारित लक्ष्यों तक पहुंच जाता है, तब उसे पता लगता है कि इन लक्ष्यों के चारों ओर बहुत सी बातें हैं।

जीवन भर तुम धन कमाने का प्रयत्न करते हो और सोचते हो जब तुम्हें यह मिल जाएगा तो तुम आराम का जीवन जिओगे। लेकिन तुम जीवन भर तनावग्रस्त रहे हो और जीवन के अंत में जब तुम्हें इच्छित धन-दौलत मिल जाती है तो तुम आराम से नहीं रह सकते। जीवन भर तनाव और पीड़ा में रहे हो और चिंता तुम्हें आराम नहीं लेने देगी। तुम विजयी नहीं हो, तुम तो एक हारे हुए व्यक्ति हो। तुमने अपनी भूख खो दी है, तुमने अपने स्वास्थ्य को नष्ट कर लिया है, तुम अपनी संवेदनशीलता को नष्ट कर लेते हो, अपनी संवेदना को नष्ट कर लेते हो।

तुम डॉलरों के पीछे दौड़ रहे हो। गुलाब के फूलों को देखने का समय किसके पास है? उड़ते हुए पक्षियों को देखने का समय किसके पास है? मनुष्य के सौंदर्य को देखने का समय किसके पास है? आनंद एक ऐसी वस्तु है जिसका पोषण किया जाना चाहिए। यह एक तरह का अनुशासन है, एक तरह की कला है। और इसमें समय लगता है, लेकिन जो धन के पीछे भाग रहा है, वह उस हर चीज की उपेक्षा कर रहा है जो दिव्यता के द्वार तक ले जाती है। राह के अंत में वह यात्रा समाप्त कर देता है तब उसके आगे मृत्यु के सिवाय कुछ भी नहीं होता।

Friday, July 10, 2015

जीसस के अज्ञात जीवन का रहस्य

जीसस की क्रब पहलगाव में
ओशो कहते है कि जीसस पूर्णत: संबुद्ध थे किंतु वे ऐसे लोगों में रहते थे जो संबोधि या समाधि के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए जीसस को ऐसी भाषा का प्रयोग करना पडा जिससे यह गलतफहमी हो जाती है कि वे संबुद्ध नहीं थे। प्रबुद्ध नहीं थे। वे दूसरी किसी भाषा का प्रयोग कर भी नहीं सकते। बुद्ध की भाषा इनसे बिलकुल भिन् है। बुद्ध ऐसे शब्दों का प्रयोग कभी नहीं कर सकत कि ‘’मैं परमात्मा का पुत्र हूं।’’ वे ‘’पिता’’ और ‘’पुत्र’’ जैस शब्दों का प्रयोग नहीं करते क्योंकि ये शब् व्यर्थ है। परंतु जीसस करते भी क्या। जहां वे बोल रहे वहां के लोग इसी प्रकार की भाषा को समझते थ। बुद्ध की भाषा अलग है क्योंकि वे बिलकुल अलग प्रकार के लोगों से बात कर रहे थे।
जीसस बुद्ध से अनेक प्रकार से संबंधित थे। ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल बेखबर है कि जीसस निरंतर तीस वर्ष तक कहां थे? वे अपने तीसवें साल में अचानक प्रकट होते है और तैंतीसवें साल में तो उन्हें सूली पर चढ़ा दिया जाता है। उनका केवल तीन साल का लेखा जोखा मिलता है। इसके अतिरिक् एक या दोबार उनकी जीवन-संबंधी घटनाओं का उल्लेख मिलता है। पहला तो उस समय जब वे पैदा हुए थेइस कहानी को सब लोग जानते है। और दूसरा उल्लेख है जब सात साल की आयु में वे एक त्यौहार के समय बड़े मंदिर में जाते है। बस इन दोनों घटनाओं का ही पता है। इनके अतिरिक् तीन साल तक वे उपदेश देते रहे। उनका शेष जीवन काल अज्ञात है। परंतु भारत के पास उनके जीवन काल से संबंधित अनेक परंपराएं है।
इस अज्ञातवास में वे काश्मीर के एक बौद्ध विहार में थे। इसके अनेक रिकार्ड मिलते है। और काश्मीर की जनश्रुतियों में भी इसका उल्लेख है। इस अज्ञातवास में वे बौद्ध भिक्षु बनकर ध्यान कर रहे थे। अपने तीसवें वर्ष में वे जेरूसलेम में प्रकट होते हैइसके बाद इनको सूली पर चढ़ा दिया जाता है। ईसाईयों की कहानी के अनुसार जीसस का पुनर्जन् होता है। परंतु प्रश् यह है कि इस पुनर्जन् के बाद दोबारा वे कहां गायब हो गये। ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल मौन है। कि इसके बाद वे कहां चले गए और उनकी स्वाभाविक मृत्यु कब हुई।
अपनी पुस्तक ‘’दि सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’’, में एक फ्रांसीसी लेखक कहता है कि काई नहीं जानता कि जीसस तीस साल तक कहां रहे और क्या करते रह? अपने तीसवें साल में उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया। एक जनश्रुति के अनुसार इस समय वे ‘’काश्मीर’’ में थे। काश्मीर का मूल नाम है। ‘’का’’ अर्थात ‘’जैसा’’, बराबर, और ‘’शीर’’ का अर्थ है ‘’सीरिया’’
निकोलस नाटोविच नामक एक रूसी यात्री सन 1887 में भारत आया था। वह लद्दाख भी गया था। और जहां जाकर वह बीमार हो गया था। इसलिए उसे वहां प्रसिद्ध ‘’हूमिस-गुम्पा‘’ में ठहराया गया था। और वहां पर उसने बौद्ध साहित् और बौद्ध शस्त्रों के अनेक ग्रंथों को पढ़ा। इनमें उसको जीसस के यहां आने के कई उल्लेख मिले। इन बौद्ध शास्त्रों में जीसस के उपदेशों की भी चर्चा की गई है। बाद में इस फ्रांसीसी यात्री ने ‘’सेंट जीसस’’ नामक एक पुस्तक भी प्रकाशित की थी। इसमे उसने उन सब बातों का वर्णन किया है जिससे उसे मालूम हुआ कि जीसस लद्दाख तथा पूर्व के अन् देशों में भी गए थे।
ऐसा लिखित रिकार्ड मिलता है कि जीसस लद्दाख से चलकर, ऊंची बर्फीला पर्वतीय चोटियों को पार करके काश्मीर के पहल गाम नामक स्थान पर पहुंच। पहल गाम का अर्थ है ‘’गड़रियों का गांव’’ पहल गाव में वे अपने लोगों के साथ लंबे समय तक रहे। यही पर जीसस को ईज़राइल के खोये हुए कबीले के लोग मिले। ऐसा लिखा गया है कि जीसस के इस गांव में रहने के कारण ही इस का नाम ‘’पहल गाव’’ रखा गया। कश्मीरी भाषा में ‘’पहल’’ का अर्थ है गड़रिया और गाम का अर्थ गांव। इसके बाद जब जीसस श्रीनगर जा रहे थे तो उन्होंने ‘’ईश-मुकाम’’ नामक स्थान पर ठहर कर आराम किया था और उपदेश दिये थे। क्योंकि जीसस ने इस जगह पर आराम किया इसलिए उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम हो गया ‘’ईश मुकाम’’
जब जीसस सूली पर चढ़े हुए थे तो उस समय एक सिपाही ने उनके शरीर में भाला भोंका तो उसमे से पानी और खून निकला। इस घटना को सेंट जॉन की गॉस्पल (अध्याय 19 पद्य 34) में इस प्रकार रिकार्ड किया गया है कि ‘’एक सिपाही ने भाले से उनको एक और से भोंका और तत्क्षण खून और पानी बाहर निकला।‘’ इस घटना से ही यह माना गया है कि जीसस सूली पर जीवित थे क्योंकि मृत शरीर से खून नहीं निकल सकता।
जीसस को दोबारा मरना ही होगा। या तो सूली पूरी तरह से लग गई और वे मर गए या फिर समस् ईसाइयत ही मर जाती। क्योंकि समस् ईसाइयत उनके पुनर्जन् पर निर्भर करती है। जीसस पुन जीवित होते है और यही चमत्कार बन जाता है। अगर ऐसा होता तो यहूदियों को यह विश्वास ही होता कि वे पैगंबर है क्योंकि भविष्यवाणी में यह कहा गया था कि आने वाले क्राइस् को सूली लगेगी और फिर उसका पुनर्जन् होगा।
इसलिए उन्होंने इसका इंतजार किया। उनका शरीर जिस गुफा में रखा गया था वहां से वे तीन दिन के बाद गायब हो गया। इसके बाद वे देखे गएकम से कम आठ लोगों उनको नए शरीर में देखा। फिर वे गायब हो गए। और ईसाइयत के पास ऐसा कोई रिकार्ड नहीं है कि जिससे मालूम हो कह वे कब मरे।
जीसस फिर दोबारा काश्मीर आये और वहां पर 112 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। और वहां पर अभी भी वह गांव है जहां वे मरे।
अरबी भाषा में जीसस को ‘’ईसस’’ कहा गया है। काश्मीर में उनको ‘’यूसा-आसफ़’’ कहा जाता था। उनकी कब्र पर भी लिखा गया है कि ‘’यह यूसा-आसफ़ की कब्र है जो दूर देश से यहां आकर रहा’’ और यहाँ भी संकेत मिलता है कि वह 1900साल पहले आया।
‘’सर्पेंट ऑफ पैराडाइंज’’ के लेखक ने भी इस कब्र का देखा। वह कहता है कि ‘’जब मैं कब्र के पास पहुंचा तो सूर्यास् हो रहा था और उस समय वहां के लोगों और बच्चों के चेहरे बड़े पावन दिखाई दे रहे थे। ऐसा लगता था जैसे वे प्राचीन समय के लोग होंसंभवत: वे ईज़राइल की खोई हुई उस जाति से संबंधित थे जो भारत गई थी। जूते उतार कर जब मैं भीतर गया तो मुझे एक बहुत पुरानी कब्र दिखाई दी जिसकी रक्षा के लिए चारों और फिलीग्री की नक्काशी किए हुए पत्थर की दीवार खड़ी थी। दूसरी और पत्थर में एक पदचिह्न बना हुआ थाकहा जाता है कि वह यूसा-आसफ़ का पदचिह्न है। उसकी दीवार से शारदा लिपि में लिखा गया एक शिलालेख लटक रहा जिसके नीचे अंग्रेजी अनुवाद में लिखा गया है—‘’यूसा-आसफ़ (खन्नयार। श्रीनगर) यह कब्र यहूदी है। भारत में कोई भी कब्र ऐसी नहीं है। उस कब्र की बनावट यहूदी है। और कब्र के ऊपर यहूदी भाषा, हिब्रू में लिखा गया है।
जीसस पूर्णत: संबुद्ध थे। इस पुनर्जन् की घटना को ईसाई मताग्रही ठीक से समझ नहीं सकते किंतु योग द्वारा यह संभव हो सकता है। योग द्वारा बिना मरे शरीर मो मृत अवस्था में पहुंचाया जा सकता है। सांस को चलना बंद हो जाता है, ह्रदय की धड़कन और नाड़ी की गति भी बंद की जा सकती है। इस प्रकार की प्रक्रिया के लिए योग की किसी गहन विधि का प्रयोग किया क्योंकि अगर वे सचमुच मर जाते तो उनके पुन जीवित होने की कोई संभावना नहीं थी। सूली लगाने वालों ने जब यह समझा कि वे मर गए है तो उन्होंने जीसस को उतार कर उनके अनुयायियों का दे दिया। तब एक परंपरागत कर्मकांड के अनुसार शरीर को एक गुफा में तीन दिन के लिए रखा गया। किंतु तीसरे दिन गुफा को खाली पाया गया। जीसस गायब थे।
ईसाइयों के ‘’एसनीज’’ नामक एक संप्रदाय की परंपरागत मान्यता है कि जीसस के अनुयायियों ने उनके शरीर के घावों का इलाज किया और उनको होश में ले आए और जब उनके शिष्यों ने उनको दोबारा देखा तो वे विश्वास ही कर सके कि ये वही जीसस है जो सूली पर मर गए। उनको विश्वास दिलाने के लिए जीसस को उन्हें अपने शरीर के घावों को दिखाना पडा। ये घाव उनके एसनीज अनुयायियों ने ठीक किए। गुफा के तीन दिनों में जीसस के घाव भर रहे थे। ठीक हो रहे थे। और जैसे ही वे ठीक हो गए जीसस गायब हो गए। उनको उस देश से गायब होना पडा क्योंकि अगर वे वहां पर रह जाते तो इसमे कोई संदेह नहीं कि उनको दोबारा सूली दे दी जाती।
सूली से उतारे जाने के बाद उनके घावों पर एक प्रकार की मलहम लगाई गई। जो आज भी ‘’जीसस की मलहम’’ कही जाती है। और उनके शरीर को मलमल से ढका गया। उनके अनुयायी जौसेफ़ और निकोडीमस ने जीसस के शरीर को एक गुफा में रख दिया। और उसके मुहँ पर एक बड़ा सा पत्थर लगा दिया। जीसस तीन दिन इस गुफा में रहे और स्वस् होते रहे। तीसरे दिन जबर्दस् भूकंप आया और उसके बाद तूफान; उस गुफा की रक्षा के लिए तैनात सिपाही वहां से भाग गए। गुफा पर रखा गया बड़ा पत्थर वहां से हट कर नीचे गिर गया। और जीसस वहां से गायब हो गये। उनके इस प्रकार गायब हो जाने के कारण ही लोगों ने उनके पुनर्जन् और स्वर्ग जाने की कथा को जन् दिया गया।
सूली पर चढ़ाये जाने से जीसस का मन बहुत परिवर्तित हो गया। इसके बाद वे पूर्णत: मौन हो गए। उन्हें पैगंबर बनने में कोई दिलचस्पी रही उपदेशक बनने में। बस वे तो मौन हो गए। इसीलिए इसके बाद उनके बारे में कुछ भी पता नहीं है। तब वे भारत में रहने लगे। भारत में एक परंपरा है कि बाइबल में भी कि यहूदियों का एक कबीला गायब हो गया और उसको खोजने के लिए बहुत लोग भेजे गए थे। वास्तव में कश्मीरी अपने चेहरे-मोहरे और अपने खून से मूलत: यहूदी ही है।
प्रसिद्ध फ्रांसीसी इतिहासकार, बर्नीयर ने, जो औरंगज़ेब के समय भारत आया था। लिखा है कि ‘’पीर पंजाल पर्वत को पार करने के बाद भारत राज् में प्रवेश करने पर इस सीमा प्रदेश के लोग मुझे यहूदियों जैसे लगे।‘’ अभी भी काश्मीर में यात्रा करते समय ऐसा लगता है मानो किसी यहूदी प्रदेश में गए हो। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि जीसस काश्मीर में आए क्योंकि यह भारत की यहूदी भूमि थी। वहां पर यहूदी जाति रहती थी। काश्मीर में इस प्रकार की कई कहानियां प्रचलित है। जीसस पहल गाव में बहुत वर्षों तक रहे। उनके कारण ही यह जगह गांव बन गया। प्रतीक रूप में उनको गड़रिया कहा जाता है और पहल गाम में आज भी ऐसी अनेक लोककथाएँ प्रचलित है जिनमें बताया गया है कि 1900 वर्ष पहले ‘’यूसा-आसफ़’’ नामक व्यक्ति यहां आकर बस गया था और इस गांव को उसी ने बसाया था।
जीसस सत्तर साल तक भारत में थे और सत्तर साल तक वे आने लोगों के साथ मौन रहे।
ईसाइयत को जीसस के सारे जीवन के बारे में कुछ नहीं मालूम। कि उन्होंने कहां साधना की या कैसे ध्यान किया। उनके शिष्यों को भी नहीं मालूम कि अपनी मौन-अवधि में जीसस क्या कर थे। उन्होंने केवल इतना ही रिकार्ड किया कि जीसस पर्वत पर चले गए और वहां वे तीस दिन तक मौन रहे। उसके बाद वे फिर वापस आए और उपदेश देने लगे। परंतु यह किसी को नहीं मालूम कि पर्वत पर वे क्या कर रहे थे।
इसके बाद वे धीरे-धीरे सामाजिक और राजनीतिक कार्यों में उलझते चले गए। जो कि स्वाभाविक था क्योंकि उनके चारों और जो लोग थे वे तो आध्यात्मिक थे दार्शनिक। इसलिए जीसस जो भी कहते उसे वे गलत समझ लेते थे। जीसस ने कहा, ‘’यहूदियों का राजा हूं’’, अब उनका मतलब इस संसार के राज् से नहीं थावे तो प्रतीकों और दृष्टांत के माध्यम से बोल रहे थे जिससे सम्राट बन जाएंगे और यही से मुसीबत आरंभ हो गई। किसी दूसरे देश में जीसस को सूली नहीं लगती किंतु यहूदी उनको समझ ही सके। यहूदी सदा से पदार्थवादी है। उनके लिए दूसरी दुनिया या परलोक का कोई अर्थ नहीं है। उनकी सोच और विचार धारा ही एक दम से अलग है। वे यथार्थ के ठोस धरातल पर ही जीते रहे है। अब जीसस बुद्ध की भांति बोलने लगे तो दोनों में संवाद कैसे होता? यहूदी उनका निरंतर गलत समझते रहे। बल्कि पांटियस पायलट उनको अधिक समझ रहा था बजाएं उनकी अपनी जाति के लोगों के। पायलट जानता था कि एक निर्दोष और भोले-भाले आदमी को अकारण सूली पर चढ़ाया जा रहा है। और उसने जीसस को सूली से बचाने की भरसक कोशिश की। परंतु राजनैतिक हालात ने उसे विवश कर दिया। जीसस को सूली पर चढ़ाते समयउस अंतिम क्षण में भी वह उनसे पूछता है ‘’सत् क्या है?’’ और जीसस चुप रहे। और यही बौद्ध उत्तर है। क्योंकि सत् के बारे में केवल बुद्ध ही चुप रहे है। और कोई नहीं। औरों ने कुछ कुछ कहा है। केवल बुद्ध पूर्णत: मौन रहे है। यहूदियों ने समझा कि जीसस कुछ नहीं जानते। इस पर ओशो कहते है कि ‘’मुझे सदा ऐसा लगा कि पायलट दृश् से गायब हो जाता है। उसने सारा ‘’चार्ज पुरोहित को दे दिया। क्योंकि वह इसमें भागीदार नहीं बनना चाहता। यह सब हुआ दो प्रकार की भाषाओं के कारण। जीसस दूसरी दुनिया की बात कर रहे है और यहूदी उनकी बात को इस दुनिया के प्रसंग में समझ रहे है। भारत में ऐसा नहीं हो सता था क्योंकि यहां पर प्रतीकों और दृष्टांतों की लंबी परंपरा है। यहूदी इन प्रतीकों को नहीं समझ सकते थे वे शाब्दिक अर्थ ही समझ सकते है। उनका दृष्टिकोण ही लौकिक है। वे कहते है कि अगर किसी ने तुम्हें नुकसान पहुंचाया है तो उसका दुगना नुकसान कर दो। अब जीसस बिलकुल बुद्ध की तरह बात कर रहे है। कि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे तो तुम अपना दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो।‘’
एक यहूदी अचानक कैसे इस प्रकार बोलने लगता हैयह बात समझ में नहीं आती। उनकी ऐसी कोई परंपरा नहीं है। जीसस यहूदियों में अचानक घट गए यहूदियों के विगत इतिहास से उनका कोई संबंध नहीं है। उनकी जड़ें भी वहां नहीं है। यहूदियों से उनका कोई साम् भी नहीं है। यहूदियों का तो परमात्मा भी बहुत हिंसक, क्रोधी और ईर्ष्यालु है। वह एक क्षण में सबका सर्वनाश कर सकता है और इस पृष्ठभूमि में जीसस का यह कहना कि ‘’परमात्मा प्रेम है, कितना विचित्र हे।‘’
भारत में कभी कोई बुद्ध पुरूष मारा नहीं गया क्योंकि वह चाहे कितना ही विद्रोही क्यों हो, वह भारतीय परंपरा की श्रंखला की कड़ी बना रहता है। परंतु जेरूसलेम में जीसस बिलकुल विदेशी जैसे थेवे ऐसे प्रतीकों और भाषा का प्रयोग करते है जिससे यहूदी जाति बिलकुल अंजान है। उनको तो सूली पर चढ़ाया ही जाता। उन्हें सूली लगती ही।
ओशो कहते है कि, ‘’मैं जब जीसस को देखता हूं तो मुझे वे गहरे ध्यान में डूबे दिखाई देते है। गहन संबोधि में है वे परंतु उनको ऐसी जाति के लोगों में रहना पडा जो धार्मिक या दार्शनिक नहीं थे; वे बिलकुल राजनीतिक थे। इन यहूदियों का मस्तिष् और ही ढंग से काम करता है। इसलिए इनमें कोई दार्शनिक नहीं हुआ। इनके लिए जीसस अजनबी थे। और वे बहुत गड़बड़ कर रहे थे। यहूदियों की जमी-जमायी व्यवस्था को बिगाड़ रहे थे जीसस। अंत: उन्हें चुप कराने के लिए यहूदियों ने उनको सूली लगा दी। सूली पर वे मरे नहीं। उनके शरीर को सूली से उतार कर जब तीन दिन के लिए गुफा में रखा गया तो मलहम आदि लगाकर उसे ठीक किया गया। और वहीं से जीसस पलायन कर गए। इसके बाद वे मौन हो गए और अपने ग्रुप के साथ अर्थात अपनी शिष् मंडली के साथ वे चुपचाप गुह्म रहस्यों की साधना करते रहे।
ओशो कहते है कि ‘’मुझे ऐसा प्रतीत होता है। कि उनकी गुप् परंपरा आज भी चल रही है।‘’
जीसस को समझने के लिए जरूरी है कि ईसाइयत द्वारा की गई उनकी व्याख्या को बीच में से हटाकर सीधे उनको देखा जाएतब उनकी आंतरिक संपदा से हम समृद्ध हो सकत है।