Wednesday, March 30, 2016

सुनने की कला

सुनने की कला
तुम्हारे मन पर सतत चारों तरफ से तरह-तरह के विचारों का आक्रमण होता है। स्वयं का बचाव करने के लिए हर मन ने बफर्स की एक सूक्ष्म दीवार सी खड़ी कर ली है ताकि ये विचार वापिस लौट जाएं, तुम्हारे मन में प्रवेश न करें। मूलत: यह अच्छा है लेकिन धीरे-धीरे ये बफर्स इतने अधिक बड़े हो गए हैं कि अब ये कुछ भी अंदर नहीं आने देतेऽगर तुम चाहोगे भी तो भी तुम्हारा उन पर कोई नियंत्रण नहीं चलता। और उन्हें  रोकने का वही तरीका है जिस तरह तुम अपने स्वयं के विचारों को रोकते हो। 
तुम्हारे मन पर सतत चारों तरफ से तरह-तरह के विचारों का आक्रमण होता है। स्वयं का बचाव करने के लिए हर मन ने बफर्स की एक सूक्ष्म दीवार सी खड़ी कर ली है ताकि ये विचार वापिस लौट जाएं, तुम्हारे मन में प्रवेश न करें। मूलत: यह अच्छा है लेकिन धीरे-धीरे ये बफर्स इतने अधिक बड़े हो गए हैं कि अब ये कुछ भी अंदर नहीं आने देते। अगर तुम चाहोगे भी तो भी तुम्हारा उन पर कोई नियंत्रण नहीं चलता। और उन्हें  रोकने का वही तरीका है जिस तरह तुम अपने स्वयं के विचारों को रोकते हो।
सिर्फ अपने विचारों के साक्षी बनो। और जैसे-जैसे तुम्हारे विचार विलीन होने शुरू होंगे, इन विचारों को रोकने के लिए बफर्स की जरूरत नहीं पड़ेगी। वे बफर्स गिरने लगेंगे। ये सारे सूक्ष्म तत्व हैं, तुम उन्हें देख न पाओगे लेकिन तुम्हें उनके परिणाम महसूस होंगे।
जो आदमी ध्यान से परिचित है वही सुनने की कला जानता है। और इससे उल्टा भी सच है: जो आदमी सुनने की कला जानता है वह ध्यान करना जानता है क्योंकि दोनों एक ही बातें हैं।
पहला चरण : किसी वृक्ष के पास बैठो या अपने बिस्तर पर बैठो, कहीं भी। और सड़क पर चलनेवाली यातायात की आवाज सुनना शुरू करो लेकिन समग्रता से, तन्मयता से, कोई निर्णय लिए बिना कि यह अच्छा है कि बुरा है।
तुम्हारे विचार कम हो जाएंगे और उसके साथ तुम्हारे बफर्स भी गिर जाएंगे। और अचानक एक द्वार खुलता है जो तुम्हें मौन और शांति में ले जाता है।
सदियों से हर किसी के लिए यह एकमात्र उपाय रहा है स्वयं की वास्तविकता के और अस्तित्व के रहस्य के करीब आने का। और जैसे-जैसे तुम करीब आने लगोगे तुम्हें अधिक शीतलता महसूस होगी, तुम अधिक प्रसन्न अनुभव करोगे, कृतकृत्य, संतुष्ट, आनंदित अनुभव करोगे। एक बिंदु आता है जब तुम आनंद से इतने भर जाते हो कि तुम पूरी दुनिया के साथ बांटने लगते हो और फिर भी तुम्हारा आनंद उतना ही बना रहता है। तुम बांटते चले जाते हो लेकिन उसे चुकाने का कोई उपाय नहीं है।
यहां तुम सिर्फ विधि सीख सकते हो; फिर तुम जब सुविधा हो, तुम्हें उस विधि का उपयोग करना है जहां कहीं भी, जब भी संभव हो। और तुम्हारे पास इतना ज्यादा समय होता है ––बस के लिए खड़े होते हुए, रेलगाड़ी में बैठे हुए, बिस्तर पर लेटे हुए।

खुशी का कवच

खुशी का कवच

खुशी का कवच

पहला चरण:
पहले सात दिन तक पहला चरण: बिस्तर पर लेटकर या बैठकर, बत्ती बुझाओ और अंधेरे में रहो।
 
दूसरा चरण:
 
किसी सुंदर क्षण का स्मरण करो जिसे आपने अतीत में अनुभव किया हो -- कोई भी सुंदर क्षण, उनमें  से सर्वोत्तम क्षण चुनो। हो सकता है वह बिलकुल साधारण हो, क्योंकि कभी कभी असाधारण घटनाएं निहायत साधारण तल पर घटती हैं।
 
तुम सिर्फ खाली बैठे हो, कुछ न करते हुए, बारिश छत पर गिर रही है, उसकी खुशबू, उसकी ध्वनि आपके आसपास होती है, और कुछ कौंध सी होती है। तुम पवित्र क्षण में होते हो। या किसी दिन रास्ते पर जाते हुए  पेड़ों के पीछे से अचानक तुम्हारे ऊपर सूरज की रोशनी उतरती है…और एक कौंध! कुछ खुल जाता है। पल भर के लिए तुम अलग ही दुनिया में प्रवेश करते हो।
 
एक बार उस क्षण को चुन लेने के बाद उसे सात दिन तक जारी रखो। अपनी आंखें बंद करो और उसे  पुन: जीयो। उसके तफ़सील में जाओ। छत पर बारिश गिर रही है, टप, टप… वह आवाज… वह सुगंध… उस पल की गुणवत्ता…कोई पक्षी गा रह है…कहीं कुत्ता भौंक रहा है…कोई प्लेट गिर गई और उसकी आवाज। इन सभी बारीकियों में जाओ,  सभी पहलुओं से, सभी आयामों से, सभी इंद्रियों द्वारा। हर रात तुम पाओगे कि तुम गहरे तफ़सील में उतर रहे हो। ऐसे तफ़सील जिन्हें तुम असली घटना में चूक गए होओगे लेकिन तुम्हारे मन ने उसे मुद्रित किया है। तुम उस पल को भले ही चूक जाओ, तुम्हारा मन उसे दर्ज करता रहता है। तुम्हें ऐसे सूक्ष्म पहलू
 
महसूस होंगे जो तुम्हें पता नहीं थे कि तुमने अनुभव किए थे। जब तुम्हारी चेतना उस पल पर केंद्रित होगी तब वह क्षण पुनश्च उभरेगा। तुम्हें नई बातों का अनुभव होगा। अचानक तुम्हें बोध होगा कि वे वहां पर थीं लेकिन  उस पल में तुम उनसे चूक गए थे। लेकिन मन उन सब बातों को दर्ज करता है। वह बेहद भरोसेमंद नौकर है, अत्यधिक सक्षम।
 
सातवें दिन तक तुम उसे इतना साफ देख पाओगे कि तुम्हें लगेगा कि तुमने कोई भी असली क्षण इतनी सुस्पष्टता से नहीं देखा है जितना कि इसे।
 
तीसरा चरण: खुशी का मौसम
 
सात दिन के बाद वही बात करो लेकिन एक और बात जोड़ो: आठवें दिन अपने आसपास के  स्थान को  महसूस करो, ऐसा अनुभव करो कि तीन फीट की दूरी तक यह वातास आपको घेरे हुए है, उस बीते क्षण का आभामण्डल अनुभव करो। चौदहवें दिन तक  तुम लगभग बिलकुल अलग ही दुनिया में रहोगे बेशक इसका होश भी रहेगा कि इन तीन फीटों के बाहर एक भिन्न समय और भिन्न आयाम मौजूद है।
 
चौथा चरण: उस क्षण को जीयो
 
फिर तीसरे चरण में कुछ और जोड़ना होगा। उस क्षण को जीयो, उससे घिरे रहो, और अब काल्पनिक ऐन्टी स्पेस, विपरीत स्थान निर्मित करो। जैसे मान लो तुम्हें बहुत अच्छा लग रहा है, तीन फीट तक तुम इस खुशहाली से , दिव्यता  से घिरे हो , अब ऐसी घटना के बारे में सोचो कि किसी ने तुम्हारा अपमान कर दिया और वह अपमान केवल उस सीमा तक ही आता है। एक बागुड़ है और उसके भीतर अपमान प्रवेश नहीं कर सकता। वह तीर की भांति आता है और वहां गिर पड़ता है। या कोई उदास घटना को याद करो, तुम्हें पीड़ा हुई है लेकिन वह पीड़ा तुम्हारे आसपास के कांच की दीवार तक ही पहुंचती  है और वहीं पर गिर जाती है। तुम तक पहुंचती ही नहीं। तुम देखोगे कि यदि पहले दो  सप्ताह सही गए हैं तो तीसरे सप्ताह सब कुछ  तीन फीट की सीमा तक आता है और तुम्हारे  भीतर कुछ भी प्रवेश नहीं करता।
 
पांचवां चरण : आभामण्डल को सर्वत्र लिये चलो
 
फिर चौथे सप्ताह से उस आभामण्डल को अपने पास रखो--
 
बाजार जाते हुए, लोगों से बात करते हुए सतत स्मरण रखो।
 
तुम बहुत ही रोमांचित हो ओगे। तुम दुनिया में घूमोगे फिरोगे लेकिन तुम्हारी अपनी ही एक दुनिया होगी, तुम्हारी निजी दुनिया, इसे निरंतर ख्याल रखो।
 
इससे तुम वर्तमान में जी सकोगे क्योंकि वस्तुत: तुम सतत हजारों हजार बातों से प्रभावित हो रहे हो और वे तुम्हारा ध्यान खींच लेते हैं। अगर तुम्हारे आसपास सुरक्षात्मक आभामण्डल नहीं होगा तो तुम कमजोर पड़ जाओगे। कोई कुत्ता भौंकता है, अचानक मन उस दिशा में चला गया। तुम्रारी स्मृति में कुत्ता आ जाता है। अब तुम्हारी स्मृति में अतीत के बहुत से कुत्ते बैठे हुए हैं। तुहारे दोस्त के पास कुत्ता है, अब तुम कुत्ते से हटकर अपने दोस्त के पास चले जाते हो, फिर दोस्त की बहन याद आती है जिसके प्रेम में तुम गिरे थे। अब सारी बकवास शुरू होती है। इस कुत्ते का भौंकना वर्तमान में था लेकिन वह तुम्हें कहीं अतीत में ले गया। यह तुम्हें भविष्य में भी ले जा सकता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। कोई भी चीज कहीं भी ले जा सकती है। मामला बहुत जटिल है।
 
इसलिए तुम्हें एक आसपास सुरक्षा आभामंडल चाहिए। कुत्ता भौंकता रहे लेकिन तुम अपने आपमें रहो, स्थिर, शांत, मौन, केंद्रित।
 
छठा चरण : आभामण्डल का त्याग
 
इस आभामण्डल को कुछ दिन या कुछ महीने तक सम्हालो। जब तुम देखोगे कि अब इसकी जरूरत नहीं है तब इसे छोड़ दो। एक बार तुम जान लो कि यहां और अभी कैसे रहा जाए, एक बार तुम उसकी सुंदरता का आनंद ले लो, उसकी अपरिसीम मस्ती , तो फिर इस आभामण्डल को छोड़ दो।
 
ओशो: बी रिआलिस्टिक, प्लान फॉर ए मिरैकल
 
यह किताब अब ओशो के अनुरोध पर उपलब्ध नहीं है।

नींद में उतरने से पहले शिथिल होना

 नींद में उतरने से पहले शिथिल होना

“हर रात किसी कुर्सी में आराम से बैठें और अपने सिर को पीछे टिका दें, जैसे आप डेन्टिस्ट के पास करते हैं। इसके लिए तकिये का उपयोग कर सकते हैं। फिर अपने जबड़े के निचले हिस्से को खोलो, सिर्फ शिथिल करो। पहली कुछ सांसें थोड़ी असहज होंगीं। धीरे-धीरे तुम्हारी श्वास स्थिर होगी और बहुत उथली होगी। वह बहुत थोड़ी सी भीतर जाएगी और बाहर आएगी। अपना मुंह खुला रखें, आंखें बंद रखें और विश्राम करें…”
फिर महसूस करने लगें कि आपके पैर शिथिल हो गए हैं जैसे वे आपसे अलग कर लिए गए हैं, उनके जोड़ों से काट लिए गए हों। फिर इस तरह सोचना शुरु करें कि आप सिर्फ शरीर का ऊपरी हिस्सा हैं। पैर गायब हो गए।
फिर हाथों के बारे में भी वही सोचिए कि कि दोनों हाथ ढीले हो गए और आपके धड़ से अलग कर दिए गए। अब हाथ आपके शरीर का हिस्सा नहीं हैं। वे मुर्दा हैं, काट लिए गए।  
फिर सिर के बारे में सोचने लगें कि वह छिन लिया गया, सिर धड़ से अलग कर दिया गया है। उसे ढीला छोड़ दें, वह जिस तरफ भी घूमे, घूमने दें—दायें, बांये, आप कुछ नहीं कर सकते। उसे छोड़ दें, वह हैं ही नहीं। फिर केवल आपका धड़ बचा। अनुभव करें कि आप सिर्फ इतने ही हैं। यह छाती, यह पेट, बस।
नींद में उतरने पहले इसे बीस मिनट तक करें। ऐसा कम से कम तीन सप्ताह करें तो नींद सहज आएगी।

Meditation (Kundalini)

OSHO Kundalini Meditation

प्रथम चरण: 15 मिनट
 
स्वयं को ढीला छोड़ दें और शरीर में कंपन होने दें। अनुभव करें कि ऊर्जा पांवों से ऊपर की ओर बह रही है। जो हो रहा है होने दें और कंपन मात्र हो जायें। आप अपनी आँखें खुली या बंद रख सकते हैं। 
 
“कंपन होने दें। इसे आरोपित न करें। शांत खड़े रहें, कंपन को आता महसूस करें और जब शरीर कंपने लगे तो उसको सहयोग दें पर उसे स्वयं से न करें। उसका आनंद लें, उससे आल्हदित हों, उसे आने दें, उसे ग्रहण करें, उसका स्वागत करें, परंतु उसकी इच्छा न करें। 
“यदि आप इसे आरोपित करेंगे तो यह एक व्यायाम बन जायेगा, एक शारीरिक व्यायाम बन जायेगा। फिर कंपन तो होगा लेकिन बस ऊपर-ऊपर, वह तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं करेगा। भीतर आप पाषाण की भांति, चट्टान की भांति ठोस बने रहेंगे; नियंत्रक और कर्ता तो आप ही रहेंगे, शरीर बस अनुसरण करेगा. प्रश्न शरीर का नहीं है – प्रश्न हैं आप।
“जब मैं कहता हूं कंपो, तो मेरा अर्थ है आपके ठोसपन और आपके पाषाणवत प्राणों को जड़ों तक कंप जाना चाहिये ताकि वे जलवत तरल होकर पिघल सकें, प्रवाहित हो सकें। और जब पाषाणवत प्राण तरल होंगे तो आपका शरीर अनुसरण करेगा। फिर कंपाना नहीं पड़ता, बस कंपन रह जाता है। फिर कोई उसे करने वाला नहीं है, वह बस हो रहा है। फिर कर्ता नहीं रहा।” ओशो
 दूसरा चरण: 15 मिनट
 जैसे भी चाहें नृत्य करें और अपने शरीर को इच्छानुसार गति करने दें। आपकी आंखे खुली या बंद रह सकती हैं।
 तीसरा चरण: 15 मिनट
 आँखें बंद कर लें और खड़े या बैठे हुए स्थिर हो जायें। अंदर और बाहर जो भी घट रहा है उसके प्रति सजग और साक्षी बनें रहें।
चौथा चरण: 15 मिनट
 आँखें बंद रखे हुए लेट जायें और स्थिर रहें। साक्षी बने रहें।

Meditation

ध्यान की विधियां


ध्यान करने की अनेकों विधियों में एक विधि यह है कि ध्यान किसी भी विधि से किया नहीं जाता, हो जाता है। ध्यान की योग और तंत्र में हजारों विधियां बताई गई है। हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा साधु संगतों में अनेक विधि और क्रियाओं का प्रचलन है। विधि और क्रियाएं आपकी शारीरिक और मानसिक तंद्रा को तोड़ने के लिए है जिससे की आप ध्यानपूर्ण हो जाएं। यहां प्रस्तुत है ध्यान की सरलतम विधियां, लेकिन चमत्कारिक।
विशेष : ध्‍यान की हजारों विधियां हैं। भगवान शंकर ने माँ पार्वती को 112 विधियां बताई थी जो 'विज्ञान भैरव तंत्र' में संग्रहित हैं। इसके अलावा वेद, पुराण और उपनिषदों में ढेरों विधियां है। संत, महात्मा विधियां बताते रहते हैं। उनमें से खासकर 'ओशो रजनीश' ने अपने प्रवचनों में ध्यान की 150 से ज्यादा विधियों का वर्णन किया है।
1- सिद्धासन में बैठकर सर्वप्रथम भीतर की वायु को श्वासों के द्वारा गहराई से बाहर निकाले। अर्थात रेचक करें। फिर कुछ समय के लिए आंखें बंदकर केवल श्वासों को गहरा-गहरा लें और छोड़ें। इस प्रक्रिया में शरीर की दूषित वायु बाहर निकलकर मस्तिष्‍क शांत और तन-मन प्रफुल्लित हो जाएगा। ऐसा प्रतिदिन करते रहने से ध्‍यान जाग्रत होने लगेगा।
2- सिद्धासन में आंखे बंद करके बैठ जाएं। फिर अपने शरीर और मन पर से तनाव हटा दें अर्थात उसे ढीला छोड़ दें। चेहरे पर से भी तनाव हटा दें। बिल्कुल शांत भाव को महसूस करें। महसूस करें कि आपका संपूर्ण शरीर और मन पूरी तरह शांत हो रहा है। नाखून से सिर तक सभी अंग शिथिल हो गए हैं। इस अवस्था में 10 मिनट तक रहें। यह काफी है साक्षी भाव को जानने के लिए।
3- किसी भी सुखासन में आंखें बंदकर शांत व स्थिर होकर बैठ जाएं। फिर बारी-बारी से अपने शरीर के पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक अवलोकन करें। इस दौरान महसूस करते जाएं कि आप जिस-जिस अंग का अलोकन कर रहे हैं वह अंग स्वस्थ व सुंदर होता जा रहा है। यह है सेहत का रहस्य। शरीर और मन को तैयार करें ध्यान के लिए।
4. चौथी विधि क्रांतिकारी विधि है जिसका इस्तेमाल अधिक से अधिक लोग करते आएं हैं। इस विधि को कहते हैं साक्षी भाव या दृष्टा भाव में रहना। अर्थात देखना ही सबकुछ हो। देखने के दौरान सोचना बिल्कुल नहीं। यह ध्यान विधि आप कभी भी, कहीं भी कर सकते हैं। सड़क पर चलते हुए इसका प्रयोग अच्छे से किया जा सकता है।
देखें और महसूस करें कि आपके मस्तिष्क में 'विचार और भाव' किसी छत्ते पर भिनभिना रही मधुमक्खी की तरह हैं जिन्हें हटाकर 'मधु' का मजा लिया जा सकता है।
उपरोक्त तीनों ही तरह की सरलतम ध्यान विधियों के दौरान वातावरण को सुगंध और संगीत से तरोताजा और आध्यात्मिक बनाएं। चौथी तरह की विधि के लिए सुबह और शाम के सुहाने वातावरण का उपयोग करें।

Monday, March 7, 2016

महावीर-वाणी

मुल्‍ला नसरूद्दीन और लाटरी—

मैने सुना है कि मुल्‍ला नसरूदीन एक गांव की सबसे गरीब गली में दर्जी का काम करता था। इतना कमा पता था कि मुश्‍किल से कि रोटी-रोजी का काम चल जाये, बच्‍चे पल जाये। मगर एक व्‍यसन था उसे कि हर रविवार को एक रूपया जरूर सात दिन में बचा लेता था लाटरी का टिकट खरीदने के लिए। ऐसा बाहर साल तक करता रहा, न कभी लाटरी मिली, न उसने सोचा कि मिलेगी। बस यह एक आदत हो गई थी कि हर रविवार को जाकर लाटरी की एक टिकट खरीद लेने की। लेकिन एक रात आठ नौ बजे जब वह अपने काम में व्‍यस्‍त था, काट रहा था कपड़े कि दरवाजे पर ऐ कार आकर रुकी। उस गली में तो कार कभी आती नहीं थी; बड़ी गाड़ी थी। कोई उतरा….दो बड़े सम्‍मानित व्‍यक्‍तियों ने दरवाजे पर दस्‍तक दी। नसरूदीन ने दरवाजा खोला; उन्‍होंने पीठ ठोंकी नसरूदीन की और कहा कि ‘’तुम सौभाग्‍यशाली हो, लाटरी मिल गई, दस लाख रूपये की।‘’
नसरूदीन तो होश ही खो बैठा। कैंची वहीं फेंकी,कपड़ों को लात मारी, बाहर निकला, दरवाजे पर ताला लगाकर चाबी कुएं में फेंकी। साल भर उस गांव में ऐसी कोई वेश्‍या न थी जो नसरूदीन के भवन में न आई हो; ऐसी कोई शराब न थी जो उसने न पीर हो; ऐसा कोई दुष्‍कर्म न था जो उसने न किया हो। साल भर में दस लाख रूपये उसने बर्बाद कर दिए। और साथ ही जिसका उसे कभी ख्‍याल ही नहीं था, जो जिंदगी से उसे साथ था स्‍वास्‍थ—वह भी बर्बाद हो गया। क्‍योंकि रात सोने का मौका ही न मिले—रातभर नाच गाना, शराब,साल भर बाद जब पैसा हाथ में न रहा,तब उसे ख्‍याल आया कि मैं भी कैसे नरक में जी रहा था।
वापस लौटा; कुएं में उतर कर अपनी चाबी खोजी। दरवाजा खोला; दुकान फिर शुरू कर दी। लेकिन पुरानी आदत वश वह रविवार को एक रूपये की टिकट जरूर ख़रीदता है। दो साल बाद फिर कार आकर रुकी; कोई दरवाजे पर उतरा—वहीं लोग। उन्‍होंने आकर फिर पीठ ठोंकी और कहा, इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ,दोबार तुम्‍हें लाटरी का पुरस्‍कार मिल गया, दस लाख रूपये का। नसरूदीन ने माथा पीट लिया। उसने कहा,’’माई गाड आई टु गो दैट हैल—थ्रो दैट,आल दैट हैल अगेन; क्‍या उस नरक में फिर से मुझे गुजरना पड़ेगा।‘’
…….गुजरना पडा होगा। क्‍योंकि दस लाख हाथ में आ जायें तो करोगे भी क्‍या। लेकिन उसे अनुभव है कि यह एक वर्ष नरक हो गया।
धन स्‍वर्ग तो नहीं लाता, नरक के सब द्वार खुले छोड़ देता है। और जिनमें जरा भी उत्‍सुकता है। वे नरक के द्वार में प्रविष्‍ट हो जाते है।
महावीर कहते है जो परम जीवन को जानना है तो अपनी ऊर्जा को खींच लेना होगा व्‍यर्थ की वासनाओं से। मिनीमम, जो न्‍यूनतम जीवन के लिए जरूरी है—उतना ही मांगना, उतना ही लेना,उतना ही साथ रखना, जिससे रत्‍तीभर ज्‍यादा जरूरी न हो। संग्रह मत करना।
कल की चिंता वासना ग्रस्‍त व्‍यक्‍ति को करना ही पड़ेगी, क्‍योंकि वासना के लिए भविष्‍य चाहिए। ध्‍यान करना हो तो अभी हो सकता है, भोग करना हो तो कल ही हो सकता है। भोग के लिए विस्‍तार चाहिए, साधन चाहिए, समय चाहिए। किसी दूसरे को खोजना पड़ेगा। भोग अकेले नहीं हो सकता है। ध्‍यान अकेले हो सकता है।
लेकिन बड़ी अद्भुत दुनिया है। लोग कहते है—ध्‍यान कल करेंगे, भोग अभी कर लें। भोग तो भविष्‍य में ही हो सकता है। जिसे जीवन का परम सत्‍य जाना हे, उसका कहना है समय की खोज ही वासना के कारण हुई है, वासना ही समय का फैलाव है। यह जो इतना भविष्‍य दिखलाई पड़ता है। यह हमारी वासना का फैलाव है; क्‍योंकि हमें इतने में पूरा होता नहीं दिखाई पड़ता। और कुछ लोग कहते है, और ठीक ही है….
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि पुनर्जन्‍म का सिद्धांत प्रेमियों ने खोजा होगा; क्‍योंकि उनके लिए जीवन छोटा मालूम पड़ता है ओर वासना बड़ी मालूम पड़ती है। इतनी बड़ी वासना के लिए इतना छोटा जीवन तर्कहीन मालूम होता है। संगत नहीं मालूम होता। अगर दुनिया में कोई भी व्‍यवस्‍था है, तो जितनी वासना उतना ही जीवन चाहिए। इस लिए अनंत फैलाव है।
ओशो

Friday, March 4, 2016

ब्रह्म-विद्या” – ओशो



ब्रह्म-विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते है, जो सब जानता है। गणित आप जिससे जानते है, फ़िज़िक्स आप जिससे जानते है, केमिस्‍ट्री आप जिससे जानते है। उस तत्‍व को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। जानने वाले को जान लेना ब्रह्म विद्या है। ज्ञान के स्‍त्रोत को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। भीतर जहां चेतना को केंद्र हे, जहां से मैं जानता हूं आपको, जहां से मैं देखता हूं आपको; उसे भी देख लेना, उसे भी जान लेना, उसे भी पहचान लेना, उसकी प्रत्‍यभिज्ञा, उसका पुनर् स्मरण ब्रह्म विद्या है।

कृष्‍ण कहते है, विद्याओं में मैं ब्रह्म विद्या हूं।

इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फ्रिक नहीं की। भारत के और विद्याओं में पिछडे जाने का बुनियादी कारण यही है। भारत ने फिर और विद्याओं की फिक्र नहीं कि, ब्रह्म-विद्या की फिक्र की।

लेकिन उसमें अड़चन है, क्‍योंकि ब्रह्म-विद्या जानने को कभी लाखों-करोड़ो में एक आदमी उत्‍सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म-विद्या जानने को उत्‍सुक नहीं होता। और भारत के जो श्रेष्‍ठतम मनीषी थे, वे ब्रह्म-विद्या में उत्‍सुक थे। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी कोई उत्‍सुकता ब्रह्म-विद्या में नहीं थी। उसकी उत्‍सुकता तो और विधवाओं में थी। लेकिन सामान्य जन और विद्याओं को विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है। और परम मनीषी उन विद्याओं में उत्‍सुक ही न थे।

इसलिए भारत ने बुद्ध को जाना, महावीर को, कृष्‍ण को, पतंजलि को, कपिल को, नागराजन को, वसु बंध को, शंकर को जाना भारत ने। ये सारे, इनमें से कोई भी अल्बर्ट आइंस्टीन  हो सकता है, इनमें से कोई भी प्‍लांक हो सकता है। इनमें से कोई भी किसी भी विधा में प्रवेश कर सकता है। लेकिन भारत का जो श्रेष्‍ठतम मनीषी था, वह परम विद्या में उत्‍सुक था। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी तो परम विद्या में कोई उत्‍सुकता ही नहीं थी। उसकी उत्‍सुकता दूसरी विद्याओं में है। लेकिन वह विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है।

पश्‍चिम में दूसरी विद्याओं को विकसित किया, क्‍योंकि पश्‍चिम के बड़े मनीषी और विद्याओं में उत्‍सुक थे। इसलिए एक अद्भुत घटना घटी। पश्‍चिम ने सब विद्याएँ विकसित कर लीं और आज पश्‍चिम को लग रहा है। कि वह आत्‍म-अज्ञान से भरा हुआ है। और पूरब ने आत्‍म-ज्ञान विकसित कर लिया और आज पूरब को लग रहा है। कि हमसे ज्‍यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया में कोई नहीं है।

हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया दांव। उन्‍होंने दूसरी अति कर ली। उन्‍होंने आत्‍म विद्या को छोड़कर बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उलटी बात है। वे आत्‍म-अज्ञान से पीड़ित है और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता से पीड़ित हे।

वह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का जब संतुलन हो, तो पूर्ण संस्‍कृति विकसित होती है। इसलिए न तो पूरब और न पश्‍चिम ही पूर्ण है। फिर भी अगर चुनाव करना हो अगर तो परम विद्या ही चुनने जैसी है। सारी बिद्याएं छोड़ी जा सकती है। क्‍योंकि और सब पा कर कुछ भी पाने जैसा नहीं है।

कृष्‍ण कहते है। मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में।

लेकिन यह बात आप ध्‍यान रखना, और विद्याओं का वे निषेध नहीं करते है। और विद्याओं में जो श्रेष्‍ठ है, उसकी सुचना भर दे रहे है। वे यह नहीं कह रहे है कि सिर्फ अध्‍यात्‍म-विद्या को खोजना है, बाकी सब छोड़ देना है।

यह भी सोचने जैसा है। कि अध्यात्म-विद्या परम विद्या तभी हो सकती है। जब दूसरी बिद्याएं भी हो। नहीं तो यह परम विद्या नहीं रह जाएगी। आप कोई मंदिर का अकेला सोने का शिखर बना लें और दीवालें न हों तो समझ लेना शिखर जमीन पर पडा हुआ लोगों के पैरो की ठोकर खाए गा। मंदिर का स्‍वर्ण-शिखर आकाश में उठता ही इसलिए है कि पत्‍थर की दीवालें उसे सम्‍हालती है। अध्‍यात्‍म-विद्या का शिखर भी तभी सम्‍हलता है, जब और सारी बिद्याएं दीवालें बन जाती है। और सम्‍हालती है।

अब तक हम कहीं भी मंदिर नहीं बना पाए। हमने शिखर बना लिया, पश्‍चिम ने मंदिर की दीवालें बना ली। जब तक हमारी शिखर पिश्चम के मंदिर पर न चढ़े, तब तक दुनिया में पूर्ण संस्‍कृति पैदा नहीं हो सकती। ये विरोध भास नहीं समन्‍वय को दोर है। हम यहां पर दीवालों का जिर्णधार करने में लगे है। कलस तो है पर दीवालें हमें पश्‍चिम से ही लेनी है।

Tuesday, March 1, 2016

Be a symbol

People, consciously or unconsciously create a symbol that represent more than themselves. A symbol can become a brand, just as Steve Jobs created with Apple. People will follow a symbol, just as the soldiers follow a flag into the battle field.


Everyone has to struggle in Life

The struggles in life is for all. The only thing that matters is how we overcome them and convert them into our strength.


Conquer your fears

Everyone is afraid of something or the other. The only way we can go ahead in life is by overcoming that fear.

Face your fears :  Being scared doesn’t have to mean you lack courage; it’s going ahead and facing the giants anyway. Courage means you step out and take a risk. Behind all our fears are beliefs, ways we have interpreted and given the events of life meaning. Decide what beliefs are driving your fears.