Thursday, May 5, 2016

मौन

मौन होना सीखो। और कम से कम अपने मित्रों के साथ, अपने प्रेमियों के साथ, अपने परिवार के साथ, यहां अपने सहयात्रियों के साथ, कभी कभार मौन में बैठो। गपशप मत किए चले जाओ, बातचीत मत किए चले जाओ। बात करना बंद करो, और सिर्फ बाहरी ही नहीं--भीतरी बातचीत भी बंद करो। अंतराल बनो। बस बैठ जाओ, कुछ मत करो, एक-दूसरे के लिए उपस्थिति मात्र बन जाओ। और शीघ्र ही तुम संवाद का नया ढंग पा लोगे। और वह सही ढंगहै। 


कभी-कभार मौन में संवाद स्थापित करना प्रारंभ करो। अपने मित्र का हाथ थामे, मौन बैठ जाओ। बस चांद को देखते, चांद को महसूस करो, और तुम दोनों शांति से इसे महसूस करो। और देखना, संवाद घटेगा--सिर्फ संवाद ही नहीं, बल्कि घनिष्ठता घटेगी। तुम्हारे हृदय एक लय में धड़कने लगेंगे। तुम एक ही तरह का अवकाश महसूस करने लगोगे। तुम एक ही तरह का आनंद महसूस करने लगोगे। तुम एक-दूसरे की चेतना पर आच्छादित होने लगोगे। वह घनिष्ठताहै। बिना कुछ कहे तुमने कह दिया, और वहां किसी तरह की गलतफहमी नहीं होगी। 

दुख

यदि तुम पलायन न करो, यदि तुम दुख को मौजूद होने दो, यदि तुम उससे आमना-सामना करने को तैयार हो, यदि तुम किसी तरह से उसे भूल जाने का प्रयास नहीं कर रहे हो, तब तुम अलग ही व्यक्ति हो। दुखहै तो, पर बस तुम्हारे आसपास; यह केंद्र में नहींहै, वह परिधि परहै। दुख के लिए केंद्र पर होना असंभवहै; ऐसा वस्तु का स्वभाव नहींहै। यह हमेशा परिधि परहै और तुम केंद्र पर हो। 


तो जब तुम उसे होने देते हो, तुम पलायन नहीं करते, तुम भागते नहीं, तुम भयग"स्त नहीं होते, अचानक तुम इस बात के प्रति सजग होते हो कि दुख परिधि परहै जैसे कि कहीं और घट रहाहै, न कि तुम्हारे साथ, और तुम उसे देख रहे हो। तुम्हारे सारे अंतरतम पर एक सूक्ष्म आनंद फैल जाताहै क्योंकि तुमने जीवन का एक मौलिक सत्य पहचान लिया कि तुम आनंद हो, न कि दुख। 


क्रोध

जब तुम किसी के लिए क्रोधित हो और तुम अपना क्रोध उस पर डालते हो, तुम प्रतिक्रिया की चेन पैदा करते हो। अब वह क्रोधित होगा। यह हो सकता है कि जन्मों तक चलता रहे और तुम दुश्मन बने रह सकते हो। तुम इसका अंत कैसे कर सकते हो? यहां सिर्फ एक ही संभावना है। तुम इसका सिर्फ ध्यान में अंत कर सकते हो, और कहीं नहीं, क्योंकि ध्यान में तुम किसी पर क्रोधित नहीं हो । तुम बस क्रोधित हो। 


भेद बुनियादी है। तुम किसी के ऊपर क्रोधित नहीं हो। तुम बस क्रोधित हो और क्रोध ब्रह्मांड में मुक्त होता है। तुम किसी के लिए नफरत से नहीं भरे हो, तुम बस नफरत से भरे हो और वह बाहर फेंक रहे हो। ध्यान में, भावनाएं किसी के लिए नहीं है। वे किसी के लिए नहीं है। वे ब्रह्मांड में चली जाती है, और ब्रह्मांड हर चीज को शुद्ध कर देता है।

यह ऐसे ही जैसे कि गंदी नदी समुद्र में गिरती है : समुद्र उसे शुद्ध कर देगा। जब कभी तुम्हारा क्रोध, तुम्हारी नफरत, तुम्हारी कामुकता, ब्रह्मांड में जाती है, समुद्र में जाती है--यह शुद्ध हो जाती है। यदि गंदी नदी किसी दूसरी नदी में गिरती है, तब दूसरी नदी भी गंदी हो जाती है। जब तुम किसी के ऊपर क्रोधित हो, तुम अपने कचरे को उस पर फेंक रहे हो। तब वह अपना कचरा तुम्हारे ऊपर फेंकेगा और तुम कचरा फेंकने की संयुक्त प्रक्रिया हो जाओगे ।

ध्यान तुम स्वयं को ब्रह्मांड में शुद्ध होने के लिए फेंक रहे हो। सारी ऊर्जा जो तुम ब्रह्मांड में फेंकते हो वह शुद्ध हो जाती है। ब्रह्मांड बहुत विशाल है महान समुद्र, तुम उसे गंदा नहीं कर सकते। ध्यान में हम किसी व्यक्ति से नहीं जुड़े हैं। ध्यान में हम सीधे ब्रह्मांड से जुड़ते हैं।

तादात्म्य नहीं

इसे अपनी कुंजी बन जाने दो--अगली बार जब क्रोध आए, बस उसे देखो। मत कहो, "मैं क्रोधित हूं।' कहा, "क्रोध यहां है और मैं उसका दृष्टा हूं।' और फर्क देखना! फर्क बहुत बड़ा होगा। अचानक तुम क्रोध की पकड़ से बाहर हो गए। यदि तुम कह सको, "मैं बस देखने वाला हूं, मैं क्रोध नहीं हूं,' तुम उसकी पकड़ से बाहर हो गए। जब उदासी आए, बस एक तरफ बैठ जाओ और कहो, "मैं देखने वाला हूं, मैं उदासी नहीं हूं,' और फर्क देखना। तत्काल तुमने उदासी की जड़ काट दी। वह और अधिक पोषित नहीं हो रही। वह भूख से मर जाएगी। हम इन विभिन्न भावनाओं से तादात्म्य बना कर पोषित करते हैं।

यदि धार्मिकता को एक अकेली बात में सिकोड़ा जा सके, तो वह है तादात्म्य का न होना। 

तुलना

तुलना रुग्णता है, बहुत बड़ी रुग्णता है। प्रारंभ से ही हमें तुलना करना सिखाया जाता है। तुम्हारी मां तुम्हारी तुलना दूसरे बच्चों से करने लगती है। तुम्हारे पिता तुलना करते हैं। शिक्षक कहते हैं, "गोपाल को देखो, वह कितना अच्छा है, और तुम कुछ भी ठीक नहीं रहे हो!' 


शुरुआत से ही तुम्हें कहा गया है कि स्वयं की तुलना दूसरों से करो। यह बड़ी से बड़ी रुग्णता है; यह कैंसर की तरह है जो तुम्हारी आत्मा को नष्ट किए चला जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है, और तुलना संभव नहीं है। मैं बस मैं हूं और तुम बस तुम। दुनिया में कोई नहीं है जिसके साथ तुलना की जाए। क्या तुम गेंदे की तुलना गुलाब से करते हो? तुम तुलना नहीं करते। क्या तुम आम की तुलना सेव फल से करते हो? तुम तुलना नहीं करते। तुम जानते हो कि वे असमान हैं--तुलना संभव नहीं है।

मनुष्य कोई वर्ण नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। तुम्हारे जैसा व्यक्ति पहले कभी नहीं हुआ और फिर से कभी नहीं होगा। तुम पूरी तरह से अद्वितीय हो। यह तुम्हारा विशेषाधिकार है, तुम्हारा खास हक है, जीवन का आशीर्वाद है--कि इसने तुम्हें अद्वितीय बनाया। 

सुनना

यदि तुम सब तरह के पूर्वाग्रहों के साथ सुन रहे हो तो यह सुनने का गलत ढंग है। तुम्हें लगता है कि सुन रहे हो, पर तुम्हें बस सुनाई दे रहा है, तुम सुन नहीं कर रहे। सही सुनने का मतलब होता है मन को एक तरफ रख देना। इसका यह मतलब नहीं होता कि तुम बुद्धू हो जाते हो, कि जो कुछ भी तुम्हें कहा जा रहा है उस पर तुम विश्वास करने लगते हो। इसका विश्वास या अविश्वास से कुछ लेना-देना नहीं है। सही सुनने का मतलब है, "अभी मेरा इससे कुछ लेना-देना नहीं है कि इस पर मैं विश्वास करूं या ना करूं। इस क्षण राजी होने या ना राजी होने की कोई बात ही नहीं है। जो कुछ भी है उसे सुनने का मैं प्रयास कर रहा हूं। बाद में मैं तय कर सकता हूं कि क्या सही और क्या गलत है। बाद में मैं तय कर सकता हूं कि अनुसरण करना है या अनुसरण नहीं करना है।' 


और सही सुनने की सुंदरता यह है कि सत्य का अपना संगीत होता है। यदि तुम बिना पूर्वाग्रह के सुन सको, तुम्हारा हृदय कहेगा कि यह सत्य है। यदि वह सत्य है तो तुम्हारे हृदय में घंटियां बजने लगती हैं । यदि वह सत्य नहीं है, तुम अछूते बने रहोगे, उदासीन, विरक्त बने रहोगे; तुम्हारे हृदय में कोई घंटियां नहीं बजेंगी, कोई समस्वरता नहीं घटती। यह सत्य का गुण है कि यदि तुम उसे खुले हृदय से सुनो, यह तत्काल तुम्हारी चेतना में प्रतिसाद पैदा करता है--तुम्हारा केंद्र ऊपर उठने लगता है। तुम्हारे पंख उगने लगते हैं; अचानक सारा आकाश खुल जाता है।

यह बात तार्किक ढंग से तय करने की नहीं है कि जो कहा जा रहा है वह सत्य है या असत्य है। ठीक इससे उल्टा, यह सवाल तो प्रेम का है, न कि तर्क का। सत्य तत्काल तुम्हारे हृदय में प्रेम पैदा करता है; तुम्हारे अंदर बड़े रहस्यात्मक ढंग से कुछ छिड़ जाता है।

लेकिन यदि तुम जो है उसे गलत ढंग से सुनते हो, मन से पूरे भरे हुए, तुम्हारे सारे कचरे से भरे, तुम्हारी सारी जानकारी से भरे हुए--तब तुम अपने हृदय को सत्य का प्रतिसंवेदन नहीं करने दोगे। तुम बहुत बड़ी संभावना से चूक जाओगे, तुम समस्वरता को चूक जाओगे। तुम्हारा हृदय सत्य के अनुकूल होने को तैयार था...वह सिर्फ सत्य के अनुकूल होता है, इसे याद रखो, यह कभी भी असत्य को प्रतिसंवेदित नहीं करता। असत्य के साथ यह पूरा मौन रहता है, बिना जवाब दिए, निर्विकार, बिना हिले बना रहता है। सत्य के साथ यह नाचने लगता है, यह गाने लगता है, ऐसे जैसे कि अचानक सूरज उग गया और काली अंधेरी रात समाप्त हो गई, और तब पक्षी गाने लगते हैं और कमल खिलने लगते हैं, और सारी धरती जाग जाती है। 

साहस

साहस



प्रारंभ में साहसी और डरपोक मेंे फर्क नहीं होता है। दोनो में भय होता है। भेद यह है कि डरपोक अपने भय की सुनता है और उसका अनुसरण करता है। साहसी व्यक्ति उन्हें एक तरफ रख देता है और आगे बढ़ता है। भय तो है, वह उन्हें जानता है, लेकिन साहसी सभी भयों के बावजूद अज्ञात में जाता है। साहसी का मतलब यह नहीं होता है कि वह भयमुक्त होता है, बल्कि सभी भयों के बावजूद अज्ञात जाने वाला होता है।

जब तुम समुद्र में बगैर नकशे के जाते हो, जैसे कि कोलंबस ने किया... भय होता है, बहुत भय होता है, क्योंकि तुम्हें नहीं पता कि क्या होने वाला है और तुम सुरक्षा का किनारा छोड़ रहे हो। एक तरह से तुम पूरी तरह से ठीक थे; सिर्फ एक ही बात चूक रही थी--रोमांच। अज्ञात में जाना तुम्हें रोमांचित करता है। हृदय धड़कने लगता है; तुम फिर से जीवंत हो जाते हो, पूरी तरह से जीवंत। तुम्हारे होने का प्रत्येक रेशा जीवंत हो जाता है क्योंकि तुमने अज्ञात की चुनौती को स्वीकारा।

अज्ञात की चुनौती को स्वीकारना साहस है। भय है, लेकिन यदि तुम बार-बार चुनाती को स्वीकारते रहते हो, धीरे-धीरे वे भय तिरोहित हो जाएंगे। अज्ञात जो आनंद लाता है, अज्ञात के साथ जो महान उ"ास घटने लगता है, वह तुम्हें समग" बनाता है, बहुत अखंडता देता है, तुम्हारी बुद्धिमत्ता को तीक्ष्ण बनाता है। तुम्हें लगने लगता है कि जीवन सिर्फ ऊब ही नहीं है, जीवन रोमांच है। धीरे-धीरे भय तिरोहित होने लगते हैं और तुम नए रोमांच खोजने और ढूंढ़ने लगते हो।

अज्ञात के लिए ज्ञात को, अपरिचित के लिए परिचित को, असुविधाजनक के लिए सुविधानजक को, दुष्कर यात्रा के लिए दांव पर लगा देना साहस है। तुम नहीं जानते कि तुम यह कर पाओगे या नहीं। यह जुंआ है, लेकिन सिर्फ जुंआरी जानते हैं कि जीवन क्या होता है। 

एकांत और अकेलापन


जब भी एकांत होता है, तो हम अकेलेपन को एकांत समझ लेते हैं। और तब हम तत्काल अपने अकेलेपन को भरने के लिए कोई उपाय कर लेते हैं। पिक्चर देखने चले जाते हैं, कि रेडियो खोल लेते हैं, कि अखबार पढ़ने लगते हैं। कुछ नहीं सूझता, तो सो जाते हैं, सपने देखने लगते हैं। मगर अपने अकेलेपन को जल्दी से भर लेते हैं। ध्यान रहे, अकेलापन सदा उदासी लाता है, एकांत आनंद लाता है। वे उनके लक्षण हैं। अगर आप घड़ीभर एकांत में रह जाएं, तो आपका रोआं-रोआं आनंद की पुलक से भर जाएगा। और आप घड़ी भर अकेलेपन में रह जाएं, तो आपका रोआं-रोआं थका और उदास, और कुम्हलाए हुए पत्तों की तरह आप झुक जाएंगे। अकेलेपन में उदासी पकड़ती है, क्योंकि अकेलेपन में दूसरों की याद आती है। और एकांत में आनंद आ जाता है, क्योंकि एकांत में प्रभु से मिलन होता है। वही आनंद है, और कोई आनंद नहीं है।
गीता दर्शन अध्याय ६ प्रवचन 5