Saturday, September 9, 2017

बच्चे को प्रेम पूर्वक सुझाव दें ,

बच्चे को प्रेम पूर्वक सुझाव दें ,
                         दबाव व आज्ञा से नहीं ।

 बच्चों पर  भूल कर भी दबाव मत डालना, भूल कर भी जबरदस्ती मत करना, भूल कर भी हिंसा मत करना।

बहुत प्रेम से, अपने जीवन के परिवर्तन से, बहुत शांति से, बहुत सरलता से बच्चे को सुझाना। आदेश मत देना, यह मत कहना कि ऐसा करो।
                     क्योंकि
जब भी कोई ऐसा कहता है, ऐसा करो! तभी भीतर यह ध्वनि पैदा होती है सुनने वाले के, कि नहीं करेंगे। यह बिलकुल सहज है। उससे यह मत कहना कि ऐसा करो।

उससे यही कहना कि मैंने ऐसा किया और आनंद पाया; अगर तुम्हें भी आनंद पाना हो तो इस दिशा में सोचना।
उसे समझाना, उसे सुझाव देना; आदेश नहीं, उपदेश नहीं. उपदेश और आदेश बड़े खतरनाक सिद्ध होते हैं।
उपदेश और आदेश बड़े अपमानजनक सिद्ध होते हैं।

छोटे बच्चे का बहुत आदर करना। क्योंकि जिसका हम आदर करते हैं उसको ही केवल हम अपने हृदय के निकट ला पाते हैं।
यह हैरानी की बात मालूम पड़ेगी। हम तो चाहते हैं कि छोटे बच्चे बड़ों का आदर करें। हम बड़े उनका कैसे आदर करें! लेकिन,
अगर हम चाहते हैं कि, छोटे बच्चे आदर करें मां-बाप का, तो आदर देना पड़ेगा। यह असंभव है कि मां-बाप तो अनादर करें और  बच्चों से आदर पा लें.. यह असंभव है।
बच्चों को आदर देना जरूरी है और बहुत आदर देना जरूरी है।

उगते हुए अंकुर हैं, उगता हुआ सूरज हैं। हम तो व्यर्थ हो गए, हम तो चुक गए। अभी उसमें जीवन का विकास होने को है। वह परमात्मा ने एक नये व्यक्तित्व को भेजा है, वह उभर रहा है।
उसके प्रति बहुत सम्मान, बहुत आदर जरूरी है। आदरपूर्वक, प्रेमपूर्वक, खुद के व्यक्तित्व के उदाहरण के द्वारा उस बच्चे के जीवन को भी परिवर्तित किया जा सकता है।

अंतर्मुखी बनाने के लिए पूछा है। अंतर्मुखी तभी कोई बन सकता है जब भीतर आनंद की ध्वनि गूंजने लगे। हमारा चित्त वहीं चला जाता है जहां आनंद होता है। अभी मैं यहां बोल रहा हूं। अगर कोई वहां एक वीणा बजाने लगे और गीत गाने लगे, तो फिर आपको अपने मन को वहां ले जाना थोड़े ही पड़ेगा, वह चला जाएगा। आप अचानक पाएंगे कि आपका मन मुझे नहीं सुन रहा है, वह वीणा सुनने लगा। मन तो वहां जाता है जहां सुख है, जहां संगीत है, जहां रस है।

बच्चे बहिर्मुखी इसलिए हो जाते हैं कि
वे मां-बाप को देखते हैं दौड़ते हुए बाहर की तरफ।
एक मां को वे देखते हैं बहुत अच्छे कपड़ों की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं गहनों की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं बड़े मकान की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं बाहर की तरफ दौड़ते हुए। उन बच्चों का भी जीवन बहिर्मुखी हो जाता है।

अगर वे देखें एक मां को आंख बंद किए हुए,
और उसके चेहरे पर आनंद झरते हुए देखें, और वे देखें एक मां को प्रेम से भरे हुए, और वे देखें एक मां को छोटे मकान में भी प्रफुल्लित और आनंदित; और वे कभी-कभी देखें कि मां आंख बंद कर लेती है और किसी आनंद के लोक में चली जाती है।

 वे पूछेंगे कि यह क्या है? कहां चली जाती हो? वे अगर मां को ध्यान में और प्रार्थना में देखें, वे अगर किसी गहरी तल्लीनता में उसे डूबा हुआ देखें, वे अगर उसे बहुत गहरे प्रेम में देखें, तो वे जानना चाहेंगे कि कहां जाती हो? यह खुशी कहां से आती है? यह आंखों में शांति कहां से आती है? यह प्रफुल्लता चेहरे पर कहां से आती है? यह सौंदर्य, यह जीवन कहां से आ रहा है?

वे पूछेंगे, वे जानना चाहेंगे। और वही जानना, वही पूछना, वही जिज्ञासा, उसी से उन्हें मार्ग दिया जा सकता है।

तो पहली तो जरूरत है कि अंतर्मुखी होना खुद सीखें। अंतर्मुखी होने का अर्थ है: घड़ी दो घड़ी को चौबीस घंटे के जीवन में सब भांति चुप हो जाएं, मौन हो जाएं। भीतर से आनंद को उठने दें, भीतर से शांति को उठने दें। सब तरह से मौन और शांत होकर घड़ी दो घड़ी को बैठ जाएं।

जो मां-बाप चौबीस घंटे में घंटे दो घंटे को भी मौन होकर नहीं बैठते, उनके बच्चों के जीवन में मौन नहीं हो सकता। जो मां-बाप घंटे दो घंटे को घर में प्रार्थना में लीन नहीं हो जाते हैं, ध्यान में नहीं चले जाते हैं, उनके बच्चे कैसे अंतर्मुखी हो सकेंगे?

बच्चे देखते हैं मां-बाप को कलह करते हुए, द्वंद्व करते हुए, संघर्ष करते हुए, लड़ते हुए, दुर्वचन बोलते हुए।
बच्चे देखते हैं, मां-बाप के बीच कोई बहुत गहरा प्रेम का संबंध नहीं देखते, कोई शांति नहीं देखते, कोई आनंद नहीं देखते; उदासी, ऊब, घबड़ाहट, परेशानी देखते हैं।
ठीक इसी तरह की जीवन की दिशा उनकी हो जाती है।

बच्चों को बदलना हो तो खुद को बदलना जरूरी है। अगर बच्चों से प्रेम हो तो खुद को बदल लेना एकदम जरूरी है। जब तक आपके कोई बच्चा नहीं था, तब तक आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं थी। बच्चा होने के बाद एक अदभुत जिम्मेवारी आपके ऊपर आ गई। एक पूरा जीवन बनेगा या बिगड़ेगा। और वह आप पर निर्भर हो गया। अब आप जो भी करेंगी उसका परिणाम उस बच्चे पर होगा।

अगर वह बच्चा बिगड़ा, अगर वह गलत दिशाओं में गया, अगर दुख और पीड़ा में गया, तो उसका पाप किसके ऊपर होगा? बच्चे को पैदा करना आसान, लेकिन ठीक अर्थों में मां बनना बहुत कठिन है। बच्चे को पैदा करना तो बहुत आसान है। पशु-पक्षी भी करते हैं, मनुष्य भी करते हैं, भीड़ बढ़ती जाती है दुनिया में। लेकिन इस भीड़ से कोई हल नहीं है। मां होना बहुत कठिन है।

अगर दुनिया में कुछ स्त्रियां भी मां हो सकें  तो सारी दुनिया दूसरी हो सकती है। मां होने का अर्थ है: इस बात का उत्तरदायित्व कि जिस जीवन को मैंने जन्म दिया है, अब उस जीवन को ऊंचे से ऊंचे स्तरों तक, परमात्मा तक पहुंचाने की दिशा पर ले जाना मेरा कर्तव्य है। और इस कर्तव्य की छाया में मुझे खुद को बदलना होगा। क्योंकि जो व्यक्ति भी दूसरे को बदलना चाहता हो उसे अपने को बदले बिना कोई रास्ता नहीं है।

Monday, February 27, 2017

शांत रहना

“यदि तुम किसी ईसाई, जैन, बौद्ध भिक्षुओं के पास जाओगे, तो तुम उन्हें बहुत बेचैन पाओगे--हो सकता है तुम उन्हें उनके आश्रमों में विचलित ना पाओ, पर यदि तुम उन्हें बाहर की दुनिया में लाओ, तुम उन्हें बहुत-बहुत विचलित पाओगे क्योंकि बाहर हर कदम पर कोई ना कोई प्रलोभन है।
एक ध्यान करने वाला उस बिंदु पर आ जाता है जहां कोई प्रलोभन नहीं बचता, इसे समझने की कोशिश करो। प्रलोभन कभी बाहर से नहीं आते: ये दमित इच्छाएं होती हैं, दमित ऊर्जा होती है, दमित काम, दमित लोभ होता है जो कि प्रलोभन का रूप ले लेता है। प्रलोभन तुम्हारे भीतर से उठता है, उसका बाहर से कुछ लेना-देना नहीं। ऐसा नहीं है कि बाहर से कोई शैतान आता है और प्रलोभन दे देता है, यह तुम्हारा दमित चित्त ही है जो शैतान का रूप ले लेता है और प्रतिशोध लेना चाहता है। इस दमित मन को नियंत्रित करने के लिए ही इतना जमा हुआ और जड़ रहने की आवश्यकता हो जाती है कि जीवन ऊर्जा शरीर में और उसके अंगो में प्रवाह नहीं कर पाती। यदि ऊर्जा को प्रवाह होने दिया जाए, तो वे दमित भाव सतह पर आ जाएंगे। इसीलिए लोगों ने जड़ होना सीख लिया है, कैसे दूसरों को छू कर भी वो उन्हें छू नहीं पाते, कैसे दूसरों को देख कर भी वो उन्हें देख नहीं पाते।
"लोग बंधे हुए वाक्यों में जीते हैं--' नमस्ते, आप कैसे हैं?' किसी को इस बात से कोई अर्थ नहीं है। यह वो एक-दुसरे से वास्तविक भेंट करने से बचने के लिए करते हैं। लोग एक-दुसरे की आंख में नहीं देखते, वे एक दुसरे का हाथ नहीं पकड़ते, वे एक-दूसरे की ऊर्जा को महसूस करने की कोशिश नहीं करते। वे एक-दूसरे को आपस में घुलने का मौका नहीं देते। बहुत डरे हुए, अपने आप को किसी तरह से बस संभाले हुए... जमे हुए और जड़। एक हथकड़ी में बंधे हुए।"
"एक ध्यान करने वाला व्यक्ति अपनी भरपूर ऊर्जा में जीना सीख जाता है, अधिकता में, सर्वोच्चता में। वह शिखर पर जीता है वह उस शिखर पर अपना आवास बना लेता है। निश्चित रूप से उसमें एक उष्मा होती है पर वो ज्वर नहीं है, बल्कि वो उष्मा जीवन को दर्शाती है। वह तप्त नहीं होता, वह शीतल होता है क्योंकि वह प्रलोभनों में नहीं बह रहा। वह इतना प्रसन्न है की अब वह किसी प्रसन्नता कि खोज नहीं कर रहा। वह इतने विश्राम में है, जैसे कि कोई अपने घर में, उसे कहीं नहीं जाना, वह कोई भाग-दौड़ नहीं कर रहा... वह बहुत शांत है।"
                                                                                                  Osho, Dang Dang Doko Dang