Friday, February 19, 2016

क्षणभंगुर का आकर्षण

अगर तुम सिर्फ ज्ञान में ही उलझ गए, तो कोरे रेगिस्तान की भांति हो जाओगे–साफ-सुथरे, पर कुछ भी ऊगेगा नहीं; स्वच्छ, पर निर्बीज; विस्तीर्ण, पर न तो कोई ऊंचाई, न कोई गहराई। ज्ञान शुष्क है, अकेला। और अगर तुम अकेले भक्त हो गए, तो तुम्हारे जीवन में वृक्ष तो उगेंगे, फूल तो फलेंगे, हरियाली होगी, लेकिन उस हरियाली को बचाने के तुम्हारे पास उपाय न होंगे। तुम उन पौधों की रक्षा न कर पाओगे। अगर कोई संदेह जगाने आ गया, तो तुम्हारी उर्वर भूमि में संदेह के बीज भी पड़ जाएंगे, उनमें भी अंकुर आ जाएंगे।
भक्त अगर ज्ञान की प्रक्रिया से न गुजरा हो, तो उसका भवन सदा डगमगाता रहेगा। कोई भी संदेह डाल सकता है। और भक्त तो विश्वास करना जानता है। वह उन पर भी विश्वास कर लेता है जो उसे ले जा रहे हैं; वह उन पर भी विश्वास कर लेता है जो उसे भटका रहे हैं। वह गलत को भी पकड़ लेता है उसी तरह, जिस तरह ठीक को पकड़ता है। उसके पास सोचने-समझने की क्षमता नहीं; उसके पास विवेक नहीं।
तो भक्त ऐसे है, जैसे अंधा हो; ज्ञान ऐसे है, जैसे लंगड़ा हो; और दोनों मिल जाएं तो परम संयोग घटित होता है।
तुमने कहानी सुनी है कि जंगल में लग गई आग और एक अंधा और एक लंगड़ा बड़ी मुश्किल में पड़े। अंधे को दिखाई नहीं पड़ता, कहां जाए! पैर हैं उसके पास स्वस्थ, भाग सकता है, बच सकता है; लेकिन दिशा नहीं है। लंगड़े को दिखाई पड़ता है–कहां है मार्ग; अभी जंगल का कौन सा हिस्सा अग्नि से नहीं घिरा है; लेकिन लंगड़ा है, दौड़ नहीं सकता; निकलने का उपाय नहीं।
कथा कहती है, दोनों मिल गए; अंधे ने लंगड़े को कंधे पर ले लिया। फिर दोनों की कमियां भर गईं। वे जैसे एक ही व्यक्ति बन गए; अंधे के पैर, लंगड़े की आंखें जुड़ गईं। वे दोनों जंगल से सुरक्षित बाहर आ गए। अग्नि उन्हें नष्ट न कर पाई।
बुद्धि और हृदय जब तक न मिल जाएं, तुम जीवन की अग्नि से बच न पाओगे।
बुद्धि अंधी है। अकेले, हृदय भी पंगु है, बुद्धि भी पंगु है; जुड़ कर दोनों पूर्ण हो जाते हैं। और दोनों तुम्हारे पास हैं; दोनों का उपयोग कर लेना है।
तो ज्ञान को भक्ति का सहारा बनाओ, भक्ति को ज्ञान का सहारा बनाओ; दोनों तुम्हारे पंख बन जाएं, तुम आकाश में उड़ सकोगे। न तो एक पंख से कभी कोई पक्षी उड़ा है, न एक पैर से कोई प्राणी चला है, न एक पतवार से नाव चलती है; दोनों पतवार चाहिए। कोई विरोध नहीं है। और जिन्होंने तुमसे कहा है विरोध है, उन्होंने गलत कहा है। और गलत कहने का कारण यही है कि उन्होंने भी इस महासमन्वय को नहीं जाना। या तो वे बुद्धि से घिरे हुए लोग होंगे, जिनके पास कोरे विचार हैं, शुष्क विचार हैं, तर्क हैं, लेकिन हृदय का कोई नृत्य घटित नहीं हुआ है; और या फिर वे हृदय के लोग होंगे, सीधे-सादे; नाच तो सकते हैं, समझ नहीं है।
उस घड़ी को परम सौभाग्य की घड़ी मानना, जब तुम समझपूर्वक नाच सको। उस घड़ी को परम सौभाग्य मानना, जब तुम विवेकपूर्वक प्रेम कर सको। और परमात्मा ने तुम्हें जो भी दिया है, उसमें किसी का भी अस्वीकार मत करना; क्योंकि उतने ही अंश में तुम पंगु हो जाओगे। तुम पूरे हो, सिर्फ संयोग बिठाना है। वीणा रखी है, तार पड़े हैं; लेकिन तारों को वीणा पर जोड़ना है, तारों को कसना है, साज बिठाना है। तुम्हारे भीतर सब मौजूद है, सिर्फ संयोग मौजूद नहीं है। उस संयोग का नाम ही साधना है कि तुम्हारे भीतर की वीणा और तार मिल जाएं।
सूफी कहते हैं, एक आदमी भूखा मर रहा था। आटा था घर में, जल भी था, चूल्हा भी था, ईंधन भी था; लेकिन उस आदमी को पता नहीं कि कैसे आटा गूंथे, कैसे आग जलाए, कैसे आग पर रोटी सेंके। सब था–भूख भी थी, भोजन भी था–संयोग न बन सका। वह आदमी भूखा ही मर गया!
यह सभी आदमियों की कथा है। तुम्हारे पास सब संयोग है और तुम भूखे हो! ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम्हारे पास मौजूद नहीं है। परमात्मा किसी को इस तरह भेजता ही नहीं; सब साधन देकर भेजता है। लेकिन साधनों को बिठाना पड़ेगा। उनका ठीक अनुपात, ठीक समन्वय, ठीक संगीत बन जाए, तो तुम्हारे भीतर परमात्मा का प्रकाश हो जाएगा। न तो बुद्धि से घिरना, न हृदय से; दोनों तटों के बीच तुम्हारी चेतना बह सके नदी की धार की भांति; तुम गंगा बन जाना; फिर सागर दूर नहीं है। और जिद मत करना कि एक ही किनारे के सहारे बहेंगे; अन्यथा गंगा बह ही न पाएगी; दोनों ही किनारों का सहारा चाहिए। और अंत में दोनों किनारे छूट जाएंगे। लेकिन ध्यान रखना, वह अंत सहारे से ही आएगा।
परम अवस्था में, परम सिद्धावस्था में, न तो भक्ति रह जाती है, न ज्ञान। जब नदी सागर में गिरती है तो फिर कोई भी किनारा नहीं रह जाता, फिर तो नदी सागर हो गई।
इसलिए तीन तरह के लोग संसार में हैं।
एक, जिन्होंने बुद्धि को पकड़ लिया–दार्शनिक, तात्विक। वे बाल की खाल ही निकालते रहते हैं। तर्क की सूखी रेत उनके जीवन में भर जाती है; सोचते बहुत हैं, पहुंचते कहीं भी नहीं।
दूसरे हार्दिक लोग हैं–गाते बहुत हैं, नाचते बहुत हैं। लेकिन सब गाना-नाचना विवेकरहित है; विक्षिप्तता के करीब ज्यादा है, विमुक्ति के करीब नहीं। एक तरह का पागलपन है, एक तरह का नशा है। जिनके पास विवेक नहीं, होश नहीं, उनके लिए धर्म, हृदय एक तरह की शराब है।
फिर तीसरे तरह के लोग हैं, जिन्होंने दोनों का उपयोग कर लिया; और उपयोग करके दोनों के पार हो गए।
उस महा अतिक्रमण की आकांक्षा रखो। उस महा अतिक्रमण की अभीप्सा करो। उस तीसरे बिंदु पर पहुंच जाने का लक्ष्य रखो।
सागर में गिरना है गंगा को, तट दोनों छोड़ देने हैं। लेकिन जल्दी मत करना; सागर तक तो तट के सहारे ही पहुंचना होगा; पहुंचते ही फिर तटों का त्याग हो सकता है।
दूसरा प्रश्न:
धर्म सांसारिक सुखों को अस्थिर और क्षणभंगुर बता कर उसके प्रति हममें वैराग्य पैदा करते हैं। लेकिन क्या उनकी वही क्षणभंगुरता उनके आकर्षण का कारण भी नहीं है?
निश्चित ही, ऐसा ही है; क्षणभंगुरता ही आकर्षण का कारण है। और धर्म जीवन को क्षणभंगुर बता कर वैराग्य पैदा नहीं करते हैं। धर्म तो कहते हैं: जो भी क्षणभंगुर है उसके पीछे दुख आएगा। क्षणभंगुरता नहीं है कारण वैराग्य का, क्षणभंगुरता के पीछे दुख छाया की तरह आता है। दुख कारण है वैराग्य का। क्षणभंगुरता तो आकर्षित करती है, बुलाती है। जितना जल्दी जीवन भागा जाता है, उतना ही मन होता है–भोग लो जल्दी! अब गया, अब गया। कब उठ जाएंगे, पता नहीं। तो भोग लो। जितना ज्यादा भोग सको, भोग लो। जितनी त्वरा से जी सको, जी लो। एक क्षण भी खाली न जाए, चूस लो। एक-एक क्षण की पूरी संभावना को भोग लो।
क्षणभंगुरता आकर्षण है। मौत आ रही है, इसीलिए तो जीवन को हम पकड़ते हैं। अगर मौत आती ही न हो, कौन जीवन को पकड़ेगा? अगर सुख आते हों और कभी जाते ही न हों, कौन चिंता करेगा? आकर्षण का कारण क्षणभंगुरता है। जो चीज जितने जल्दी विलीन हो जाती है, उतनी कीमती मालूम होती है। पत्थर पड़ा है, उसकी उतनी कीमत नहीं है; पास ही फूल खिला है, फूल की बड़ी कीमत है। सुबह खिला है, सांझ खो जाएगा। देख लो, रस ले लो; आंखों को भर लो, तृप्त कर लो। क्योंकि जो खिला है वह मुरझाने की राह पर चल ही पड़ा है। देर नहीं लगेगी, सूरज मध्य आकाश में आ गया है। आधा जीवन तो फूल का जा ही चुका है, कुम्हलाना शुरू हो गया है। इसीलिए तो सौंदर्य में इतना आकर्षण है। अगर सौंदर्य सदा रहता हो, कौन चिंता करेगा?
एक मजे की बात है: कुरूपता ज्यादा स्थायी है सौंदर्य से। कुरूप व्यक्ति जीवन भर कुरूप बना रहता है, सुंदर व्यक्ति जीवन भर सुंदर नहीं होता। कुछ क्षण होते हैं जीवन के, युवा अवस्था के, जब सुंदर होता है; फिर कुम्हला जाता है। और क्या तुमने खयाल किया–जितना सुंदर व्यक्ति हो, उतने जल्दी कुम्हला जाता है! जितना कोमल फूल होगा, उतने जल्दी कुम्हला जाएगा।
दौड़ो, भागो, जल्दी करो! कहां मंदिरों में बैठे भजन-कीर्तन कर रहे हो। भोग लो! भजन-कीर्तन पीछे भी हो जाएगा। और दूसरा ही नहीं बदल रहा है, तुम्हारी भोगने की क्षमता भी प्रतिपल क्षीण होती चली जा रही है। जल्दी करो, मन कहे चला जाता है।
निश्चित ही क्षणभंगुरता आकर्षण का कारण है। अगर चीजें शाश्वत होतीं, कौन चिंता करता?
शायद इसीलिए तो तुमने परमात्मा की चिंता नहीं की है–शाश्वत है, जल्दी भी क्या है? आज नहीं कल, कल नहीं परसों, इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, अगले जन्म में नहीं तो और आगे–परमात्मा खो न जाएगा, जल्दी क्या है? जब भी जाओगे, उसे अपने घर में ही पाओगे। लेकिन ये जीवन के क्षणभंगुर फूल, यह आंखों का सौंदर्य, ये चेहरों की लालिमा, यह युवावस्था, यह तुम्हारे भोगने की क्षमता–यह सब टूटी जा रही है, भागी जा रही है। देर मत करो, मन कहता है।
निश्चित ही क्षणभंगुरता आकर्षण का कारण है। जो भी शाश्वत है, उसमें आकर्षण नहीं रह जाता। जो है ही, और सदा ही है, उसमें आकर्षण का क्या कारण है! सपने ज्यादा सुंदर लगते हैं। अभी आंख खुलेगी और टूट जाएंगे।
धर्म जब तुमसे कहता है कि क्षणभंगुर है जीवन, तो क्षणभंगुर बता कर तुम्हें वैराग्य नहीं लाना चाहता। क्षणभंगुर कह कर यह इशारा करना चाहता है कि क्षण भर के बाद फिर क्या करोगे? क्षण भर नाच लोगे, फिर रोओगे। क्षणभंगुर है अगर जीवन; भोग लोगे क्षण भर, फिर पीछे पछताओगे। चुक जाओगे व्यर्थ की दौड़ में। तितलियों के पीछे जैसे बच्चे दौड़ रहे हैं, ऐसे छोटे-छोटे भोगों के पीछे दौड़ते-दौड़ते थकोगे, गिर जाओगे, मौत समा लेगी तुम्हें। और यह समय जो तुमने क्षणभंगुर की तलाश में गंवाया, उसमें तुमने पाया तो कुछ भी नहीं। क्योंकि पाने के पहले ही चीजें कुम्हला जाती हैं; हाथ में आते-आते ही फूल मुर्दा हो जाते हैं; घर लाते-लाते ही सुख दुख में रूपांतरित हो जाता है।
वैराग्य का उदबोधन दुख के कारण है। धर्म कहता है, देखने की कोशिश करो कि जहां तुम्हें एक क्षण को सुख दिखाई पड़ता है, उसके पीछे अनंत दुख भरा है। और तुम भी इसे भलीभांति जानते हो। जब भी तुमने सुख पाया, पीछे दुख आया है; जब भी तुम प्रसन्न हुए, पीछे आंख आंसुओं से भरी है; जब भी तुम इतराए, तभी तुम गिरे हो; और जब भी तुमने सोचा था सौभाग्य का क्षण आ गया, उसके पीछे ही दुर्भाग्य की रात्रि शुरू हो गई है।
धर्म कहता है, अगर ऐसा सुख चाहिए हो जो कभी खोता नहीं और कभी दुख में रूपांतरित नहीं होता, तो सनातन को खोजो, शाश्वत को खोजो; क्षणभंगुर से जागो। सपनों में खोया गया समय, खोया गया समय है। सत्य को खोजो।
सत्य की परिभाषा क्या है? सत्य की इतनी ही परिभाषा है कि जो सदा था, जो सदा है और सदा रहेगा। असत्य की इतनी ही परिभाषा है कि जो कल नहीं था, अभी है, कल फिर नहीं हो जाएगा। असत्य का अर्थ है, दो नहीं के बीच थोड़ी देर को होना है; दो न होने के बीच थोड़ी देर को होने का भ्रम है। थोड़ा सोचो, जब दोनों तरफ नहीं है, तो बीच में हो कैसे सकेगा!
इसलिए शंकर संसार को माया कहते हैं।
माया का मतलब यह है: कल नहीं थी, आज है, कल फिर नहीं हो जाएगी। तो जो दो कोनों पर नहीं है, वह बीच में हो नहीं सकती, सिर्फ दिखाई पड़ती होगी, भास होता होगा। क्योंकि ‘नहीं’ से ‘है’ कैसे पैदा हो सकता है? और जो ‘है’, वह फिर ‘नहीं’ में कैसे खो सकता है?
तुम नहीं थे एक दिन। जन्म के पहले तुम कहां थे? मृत्यु के बाद तुम कहां रहोगे? थोड़ी सी देर का सपना है। आंख लगी, सपना देख लिया है; आंख खुलते ही खो जाएगा।
सहजो ने कहा है: जगत तरैया भोर की। जैसे सुबह का तारा होता है, आखिरी–अब डूबा, तब डूबा। डबडबाता है। तुम देखते ही रहोगे और देखते ही देखते खो जाएगा।
जगत तरैया भोर की–ऐसा सारा जीवन है।
महावीर ने कहा है: जैसे घास के पत्ते पर ओस की बूंद–ऐसा जीवन है।
घास के पत्ते पर ओस की बूंद को कभी गौर से देखा? अब ढलकी, तब ढलकी। तुम्हारे देखते-देखते ही ढल जाएगी; हवा का जरा सा झोंका काफी है। सूरज का निकलना–भाप बन जाएगी–काफी है। जरा सा धक्का, और गई। जब होती है, तब तो मोतियों कोर् ईष्या होती है। जब होती है बूंद ओस की, तब तो मोती भी शरमाते होंगे, झेंप जाते होंगे, ऐसी चमकती है। पर उसका होना क्या है? न जैसा है; हुई, न हुई, बराबर है।
जीवन क्षणभंगुर है तो सत्य नहीं हो सकता। तुमने जो भी जाना है, अगर वह जाना और फिर खो जाता है, वह सत्य नहीं हो सकता। वह मन की ही भावना रही होगी; वह मन की ही कल्पना रही होगी; वह तुम्हारा ही प्रक्षेपण रहा होगा। वैसी सच्चाई नहीं है, तुमने मान लिया होगा। वह तुम्हारी मान्यता है। मान्यता माया है। तुम्हारे भीतर की कामना को तुम जीवन के पर्दे पर आरोपित करके देखते चले जाते हो।
तुमने कभी खयाल किया–एक स्त्री बहुत सुंदर लगती है या एक पुरुष बहुत सुंदर लगता है; चार दिन बाद वही स्त्री सुंदर नहीं लगती, वही पुरुष सुंदर नहीं लगता! क्या हो गया? वही स्त्री है, वही पुरुष है! चार दिन पहले तुमने अपनी कोई कामना आरोपित कर ली थी, वह कामना टूट गई–पर्दा खाली है, अब उस पर कोई चित्र नहीं रहा।
तुम जो देखते हो अपने चारों तरफ, जब तक तुम मन में भरी कामनाओं से देखते हो, तब तक तुम वही नहीं देख सकते जो है; तब तक तुम वही देखते रहोगे जो तुम देखना चाहते हो। शुद्ध आंख वही देखती है जो है, अशुद्ध आंख वही देख लेती है जो देखना चाहती है। तुम सौंदर्य की तलाश में हो, तो तुम सौंदर्य देख लोगे। अपनी-अपनी व्याख्या है जीवन। व्याख्या के कारण जीवन माया है।
मुल्ला नसरुद्दीन दवाएं बनाता है और बेचता है। एक पैकेट पर उसने लिख रखा था: फायदा न होने पर दाम वापस। मैं उसकी दुकान पर बैठा था। एक आदमी आया, वह बड़ा नाराज था। उसने कहा, महीना भर हो गया दवा फांकते-फांकते, कोई फायदा नहीं हुआ। दाम वापस चाहिए!
नसरुद्दीन ने कहा कि पैकेट पर लिखा है: फायदा न होने पर दाम वापस। तुम्हें न हुआ हो, हमें तो फायदा हुआ है।
अपनी-अपनी व्याख्या है। जीवन को तुम वैसा ही करके देखते हो, जैसा तुम देखना चाहते हो। शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं; सत्यों के अर्थ बदल जाते हैं। तुम अपने आस-पास अपनी ही मान्यताओं का एक संसार खड़ा कर लेते हो, फिर तुम उसी संसार में जीते हो। और आदमी अपने ही कारण खोजता चला जाता है, और कारणों के थेगड़े लगाए चला जाता है, ताकि मान्यताएं टूट न जाएं, फूट न जाएं; जोड़त्तोड़ बिठाता रहता है।
मुल्ला नसरुद्दीन का बाजार में किसी से झगड़ा हो गया। वह आदमी बहुत नाराज था और उसने कहा, एक ऐसा झापड़ा मारूंगा–नसरुद्दीन को कहा–कि बत्तीसों दांत जमीन पर गिर जाएंगे, बत्तीसी नीचे गिर जाएगी।
मुल्ला नसरुद्दीन और जोश में आ गया, उसने कहा कि तूने समझा क्या है! अगर मैंने झापड़ा मारा तो चौंसठों दांत नीचे गिर जाएंगे।
एक तीसरा आदमी पास में खड़ा था, उसने कहा, भई बड़े मियां, इतना तो खयाल रखो कि चौंसठ दांत आदमी के होते ही नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, मुझे पता था कि तू भी बीच में कूद पड़ेगा, इसलिए चौंसठ। एक ही झापड़े में दोनों के गिरा दूंगा।
आदमी अपनी…तुमसे भूल भी हो जाए, तो भी तुम भूल स्वीकार नहीं करते। तुम अपनी भूल के लिए भी कारण खोज लेते हो, तर्क खोज लेते हो।
भूल को स्वीकार करना बड़ा साहस है। और जिसने भूल को स्वीकार कर लिया, धीरे-धीरे भूलें तिरोहित हो जाती हैं।
एक स्त्री के तुम प्रेम में हो। तुम बड़ा सपना बांधते हो, स्वर्ग निर्मित करते हो, बड़ी कविताएं पैदा होती हैं–और तुम सोचते हो, बस, अब स्वर्ग मिल गया। चार दिन में स्वर्ग उजड़ जाता है! तब तुम यह नहीं देखते कि मैंने कोई भूल की थी। तब तुम देखते हो–यह स्त्री धोखा दे गई। तुम यह नहीं देखते कि मेरी मन की धारणा टूटी! तुम यह नहीं देखते कि मन की धारणा टूटती ही, सुबह की ओस थी, भोर की तरैया थी, तुम यह नहीं देखते। तुम देखते हो–यह स्त्री धोखा दे गई; यह स्त्री ही गलत थी; दूसरी स्त्री खोजेंगे। फिर दूसरी स्त्री खोजते हो! फिर वही आरोपण! फिर वही भूल! फिर वही नशा! फिर वह भी चार दिन में टूट जाता है, तब भी तुम जागते नहीं।
महाभारत में बड़ी प्राचीन, बड़ी मीठी कथा है कि जब पांडव जंगल में अज्ञातवास पर हैं, भटकते रहे हैं दिन में–दोपहरी–पानी नहीं मिला। सांझ एक भाई खोजने निकला, झील मिल गई। लेकिन जब वह झील में पानी भरने को झुका, तो आवाज आई–रुको! जब तक मेरे प्रश्न का उत्तर न दो, तब तक पानी न भर सकोगे। कोई यक्ष उस झील पर कब्जा किए था। पूछा, क्या है तुम्हारा प्रश्न? यक्ष ने कहा, अगर उत्तर न दिया या उत्तर गलत हुआ, तो तत्क्षण मृत हो जाओगे। अगर उत्तर दिया, तो जल भी मिलेगा और अनंत भेंट भी दूंगा। प्रश्न था कि मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा सत्य क्या है? जो उत्तर दिया–जो भी दिया हो–वह ठीक नहीं था। एक भाई गिरा, मृत हो गया। ऐसे चार भाई एक के बाद एक गए। अंत में युधिष्ठिर गए कि हो क्या रहा है! चारों भाइयों को मरे हुए पाया। यक्ष की आवाज आई–सावधान! पहले मेरे प्रश्न का उत्तर, अन्यथा वही होगा जो इनका हुआ है। पानी एक ही शर्त पर भर सकते हो, वह मेरा ठीक उत्तर मिल जाए। क्योंकि उसी उत्तर पर मेरी मुक्ति निर्भर है। जिस दिन मुझे ठीक उत्तर मिल जाएगा, उस दिन मैं भी मुक्त हो जाऊंगा; यह मेरा बंधन यक्ष होने का टूट जाएगा। प्रश्न है: मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा सत्य क्या है? युधिष्ठिर ने कहा, यही कि चाहे कितने ही अनुभव मिलें, मनुष्य सीख नहीं पाता। यक्ष मुक्त हो गया। चारों भाई पुनरुज्जीवित हो गए। उसकी प्रसन्नता में, मुक्ति की प्रसन्नता में उसने चारों को पुनरुज्जीवन दिया।
मनुष्य को कितने ही अनुभव हो जाएं, सीख नहीं पाता। एक स्त्री से छूटता है, दूसरी! दूसरी से छूटता है, तीसरी! एक उपद्रव मिटता है, दूसरा! एक सफलता का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, तो दूसरा! एक दौड़ बंद नहीं हो पाती कि दूसरी शुरू कर देता है, दौड़ से नहीं मुक्त होता। एक वासना गिर नहीं पाती कि दस खड़ी कर लेता है। वासना की भ्रांति नहीं दिख पाती। और हर चीज के पीछे अपने तर्क खोज लेता है, अपने कारण खोज लेता है। और कभी यह नहीं देखता कि भूल मेरी होगी। सदा भूल किसी और पर थोप देता है। निश्चिंत होकर फिर भूल करने में लग जाता है।
दूसरे पर भूल थोपना, भूल को और-और करने की व्यवस्था है। जब भी तुम किसी को कहते हो कि तुम जिम्मेवार हो, तभी तुम अपनी जिम्मेवारी से इनकार कर रहे हो। और वही जिम्मेवारी तुम्हें जगा सकती थी; क्योंकि उसी जिम्मेवारी के क्षण में तुम्हें दिखाई पड़ सकता था कि मैं भूल कर रहा हूं।
भूल किसी स्त्री में नहीं है, न किसी पुरुष में है; भूल उस कामना और कल्पना में है जो तुम किसी स्त्री या पुरुष पर आरोपित करते हो। वह क्षणभंगुर है; वह कामना टूटेगी।
जरा सोचो तो, मन का एक विचार तुम कितनी देर तक थिर रख सकते हो? भोर की तरैया भी थोड़ी ज्यादा देर टिकती है। ओस का कण भी कभी-कभी देर तक टिक जाता है। लेकिन तुम अपने मन में एक विचार को कितनी देर टिका सकते हो? क्षण भर है, और गया। पकड़ो तो भी पकड़ में नहीं आता, मुट्ठी खाली रह जाती है। दौड़ो तो भी कहीं खबर नहीं मिलती–कहां गया। हवा के झोंके की तरह आता है और खो जाता है। ऐसे मन के आधार पर तुम जो संसार में जीते हो, वह जीवन क्षणभंगुर है।
संसार क्षणभंगुर है, ऐसा मत समझ लेना। वह तो सिर्फ कहने का एक ढंग है। संसार क्षणभंगुर नहीं है। संसार तो तुम नहीं थे, तब भी था; तुम नहीं रहोगे, तब भी रहेगा। संसार तो शाश्वत है। लेकिन तुम जो संसार बना लेते हो अपने ही मन के आधार पर, वह क्षणभंगुर है। वस्तुतः संसार तो है ही नहीं, परमात्मा है। परमात्मा के पर्दे पर तुम जो अपनी कामना के चित्र बना लेते हो, वे संसार हैं। और उस संसार में दुख ही दुख है।
रोज तुम्हें दुख मिलता है, फिर भी तुम कल के सुख की आशा में जीए चले जाते हो। कितनी बार तुम गिरते हो, फिर उठ-उठ कर खड़े हो जाते हो। कितनी बार जीवन तुम्हें कहता है कि तुम जो खोज रहे हो वह मिलेगा नहीं, लेकिन तुम कोई न कोई बहाना खोज लेते हो–कोई और भूल हो गई, कोई और गलती हो गई–अब की बार सब ठीक कर लेंगे, अब ऐसी भूल न हो पाएगी।
मैंने सुना है, कारागृह से एक कैदी मुक्त हुआ। तेरहवीं बार कारागृह में बंद हुआ था। मुक्त करते क्षण में जेलर को भी दया आ गई। उसकी आधी जिंदगी ऐसे ही जेल में बीत गई। उसने कहा, अब तो समझो! अब तो कुछ ऐसा करो कि जेल आना न हो!
उसने कहा, कोशिश तो हर बार करते हैं, फिर-फिर आना हो जाता है। मगर अब की बार–आप ठीक कह रहे हैं–अब की बार फिर न आऊंगा।
जेलर बहुत प्रसन्न हुआ, उसने कहा कि हम प्रसन्न हैं।
लेकिन वह कैदी बोला कि आपकी प्रसन्नता से लगता है आप समझे नहीं। मैं यह कह रहा हूं कि अब तक जो भूलें करके मैं पकड़ जाता था, अब न करूंगा। चोरी न करूंगा, यह मैं नहीं कह रहा हूं। लेकिन जिन कारणों से मैं पकड़ जाता था, वे कारण अब न दोहराऊंगा। और तेरह बार अनुभव होते-होते अब ऐसा कोई कारण नहीं बचा है, जिसे मैंने समझ न लिया हो। चोरी तो करूंगा, लेकिन अब भूल-चूक बिलकुल न होगी।
चोरी भूल-चूक नहीं है, भूल-चूक तो उन भूलों में है जिनके कारण चोरी पकड़ जाती है। जेल तुम जिनको भेजते हो, वे वहां से और निष्णात अपराधी होकर वापस आ जाते हैं। क्योंकि वहां और दादा-गुरु मिल जाते हैं, और भी पुराने घाघ। उनसे काफी सोच-समझ कर, विचार-विमर्श करके, अनुभव से सीख कर, शिक्षा लेकर, गुरुमंत्र पाकर वापस लौट आते हैं। फिर वही करते हैं। चोरी भूल नहीं है, ऐसा लगता है; भूल पकड़े जाने में है।
तुम भी सोचो–अगर तुम कुछ ऐसी तरकीब पा जाओ कि तुम पकड़े न जा सको, फिर तुम चोरी करोगे या नहीं? तुम्हारा मन साफ कहेगा: फिर करने में कोई बुराई ही नहीं है। चोरी में थोड़े ही बुराई है, पकड़े जाने में बुराई है। और जब तक तुम ऐसा समझ रहे हो, तब तक तुम दुख में जीओगे।
पकड़े जाने में दुख नहीं है, चोर होने में दुख है। चोरी करने में दुख है, पकड़े जाने में दुख नहीं है। मगर जब तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि मेरे होने के ढंग में भूल है, तब तुम पाओगे कि दुख मेरे होने के गलत ढंग से पैदा होता है। यही अर्थ है सारे कर्म के सिद्धांत का, और कुछ अर्थ नहीं है। इतना ही अर्थ है कि तुम दुख पाते हो तो तुम्हारे अपने ही कर्मों के कारण; तुम सुख पाते हो तो भी अपने ही कर्मों के कारण।
और अगर तुम आनंद पाना चाहते हो, तो अकर्म की दशा चाहिए–जहां न सुख रह जाए, न दुख; जहां परम शांति हो जाए; जहां तुम दोनों के पार हो जाओ; जहां तुम्हारे भीत