Tuesday, October 11, 2022

: मेरा स्वर्णिम भारत--(प्रवचन--13)

 


मन या तो अतीत
होता है—या भविष्य। वर्तमान में मन की
कोई सत्ता नहीं। और मन
ही संसार है? इसलिये वर्तमान में संसार
की भी कोई सत्ता
नहीं। और मन ही समय
है; इसलिये वर्तमान में समय की
भी कोई सत्ता नहीं।
अतीत का वस्तुत: कोई अस्तित्व तो
नहीं है, सिर्फ स्मृतियां हैं। जैसे रेत
पर छूटे हुए पग—चिह्न। सांप तो जा चुका—धूल पर
पड़ी लकीर रह गई। ऐसे
ही चित्त पर, जो बीत गया
है, व्यतीत हो गया है
उसकी छाप रह जाती है।
उसी छाप में अधिकतर लोग जीते
हैं। जो नहीं है उसमें
जीयेंगे तो आनंद कैसे पायेंगे! प्यास तो है
वास्तविक और पानी पीयेंगे
स्मृतियों का! बुझेगी प्यास? धूप तो है
वास्तविक और छाता लगायेंगे कल्पनाओं का!
रुकेगी धूप उससे?
अतीत का कोई अस्तित्व
नहीं है। अतीत जा चुका, मिट
चुका—मगर हम जीते हैं
अतीत में। और इसलिये हमारा
जीवन व्यर्थ अर्थहीन, थोथा।
इसलिये जीते तो हैं मगर जी
नहीं पाते। जीते तो हैं मगर
घिसटते हैं—नृत्य नहीं,
संगीत नहीं, उत्सव
नहीं।
और अतीत रोज बड़ा होता चला
जाता है! चौबीस घन्टे फिर बीत
गये—अतीत और बडा हो गया।
चौबीस घन्टे और बीत गये
अतीत और बडा हो गया। जैसे—जैसे
अतीत बड़ा होता है, वैसे—वैसे हमारे
सिर पर बोझ बड़ा होता है। इसलिये छोटे बच्चों
की आंखों में जो निर्दोषता दिखाई
पड़ती है, जो संतत्व दिखाई पड़ता है
वह फिर बूढों की आंखों में खोजना मुश्किल
हो जाता है। हजार तरह के झूठ इकट्ठे हो
जाते हैं।
सारा अतीत ही झूठ
है!
सब पीछे लौटकर देखते
हैं! हम पीछे से ही
जीते हैं। हम हिसाब ही
लगाते रहते हैं—यह हुआ, वह हुआ।
काश, ऐसा 'हो जाता, काश वैसा हो जाता!
फिर इस अतीत के उपद्रव से
भविष्य का उपद्रव पैदा होता है।
 सबसे बड़ी मुसीबत जो
अतीत लाता है, वह है भविष्य।
भविष्य तुम्हारे अतीत की
ही छाया है। वह तुमने जो
जीया है, उसमें से कुछ काट— छांटकर तुम
भविष्य की कल्पना करते हो। जो
प्रीतिकर नहीं था, उसे छांटते
हो। जो प्रीतिकर था, उसे फैलाते हो, बढ़ाते
हो, विस्तीर्ण करते हो।
भविष्य है क्या? भविष्य का तुम्हें पता तो
नहीं है। जिसका पता हो, वह
भविष्य नहीं। भविष्य तो अज्ञात है।
लेकिन अतीत ज्ञात है। ज्ञात से अशात
के संबंध में हम अनुमान लगाते हैं। और ज्ञात में से
ही चुनाव करते हैं। सुखद को चुनते हैं,
दुखद को छोड़ते हैं। ऐसे हम भविष्य के
रंगीन सपने संजोते हैं। कांटे—कांटे अलग
कर देते हैं; गुलाब—गुलाब बचा लेते हैं। हालांकि
यह हमारी भाति है, क्योंकि कांटे और
गुलाब साथ—साथ होते हैं। यह असंभव है कि
तुम जो—जो गलत था, उसे छोड़ दो और जो—जो
ठीक था, उसे बचा लो। गलत और
ठीक संयुक्त था, जुड़ा था। आयेगा, तो साथ
आयेगा। जायेगा तो साथ जायेगा। वे एक ही
सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू को बचा न
सकोगे।
तो एक तो अतीत का बोझ;
उसकी चट्टानें हमारी
छाती पर रखी हैं। और फिर
भविष्य का बोझ। अतीत का रोना, कि ऐसा क्यों
न हुआ। और फिर जल्दी
ही भविष्य के लिये रोओगे, क्योंकि वह
भी नहीं होनेवाला है। न
अतीत तुम्हारे मन के अनुकूल हुआ, न
भविष्य तुम्हारे मन के अनुकूल होगा। इन दो
पार्टी के बीच में
आदमी पिसता है। और दोनों का
ही कोई अस्तित्व नहीं
है।
अतीत वह जो जा चुका—अब
नहीं। और भविष्य वह, जो आया
नहीं—अभी
नहीं। दोनों के मध्य में छोटा सा बिंदु है
अस्तित्व का। बस, बूंद की भांति है। अगर
होश न रहा, तो चूक जाओगे।
यह सूत्र प्यारा है। यह संन्यास
की परिभाषा है।
'भविष्य नानुसन्धते—भविष्य का अनुसंधान न
करो।’
जो नहीं है, उसके
पीछे न दौड़ो। मगर साधारण आदमियों
की तो बात छोड़ दो, जिनको तुम असाधारण
कहते हो, जिनको तुम पूजते हो, वे भी
जो नहीं हैं उसके पीछे दौड़ते
हैं। राम भी स्वर्ण—मृगों के
पीछे दौड़ते हैं! औरों की तो बात
छोड़ दो। हाथ की सीता को गंवा
बैठते हैं! इसमें कसूर रावण का कम है। रावण को
नाहक दोष दिये जाते हो! अगर कहानी
को गौर से देखो, तो रावण का कसूर ना के बराबर है। अगर
कसूर है किसी का, तो राम का। स्वर्ण—मृग
के पीछे जा रहे हैं! बुद्ध से बुद्ध
आदमी को भी पता है कि मृग
स्वर्ण के नहीं होते।
साधारण से साधारण आदमी कहता
है कि सारा जग मृगमरीचिका है। देखते
हो मजा! साधारण आदमी भी
कहता है : जग मृगमरीचिका है। और
राम सोने के मृग के पीछे चल पड़े! और क्या
मृगमरीचिका होगी? इससे बड़ा
और क्या भ्रमजाल होगा?


प्रश्न: क्या सारी जिंदगी हारे ही हारे जीना होगा?

तुम पर निर्भर है। अगर जीत की बहुत आकांक्षा है तो हारे—हारे ही जीना होगा। अगर जीत की आकांक्षा छोड़ दो तो अभी जीत जाओ। फिर हार कैसी! हार का अर्थ ही होता है कि जीतने की बड़ी अदम्य वासना है। उसी वासना के कारण हार अनुभव में आती है। कभी खयाल किया, छोटा बच्चा अपने बाप से कुश्ती लड़ता है, बाप ऐसा थोड़ा दो—चार हाथ—पैर चलाकर जल्दी से लेट जाता है, छोटा बच्चा छाती पर बैठ जाता है और चिल्लाता है और प्रसन्नता से नाचता है कि गिराया, बाप को चारों खाने चित्त कर दिया। और बाप नीचे पड़ा प्रसन्न हो रहा है। चारों खाने चित्त होने में प्रसन्न हो रहा है, बात क्या है! क्योंकि बाप जानता है, हार स्वीकार की है उसने। तो हार में भी हार नहीं है।
लेकिन अगर कोई दूसरा आदमी तुम्हारी छाती पर चढ़ जाए, तो फिर जी

कचोटता है, हार हार मालूम होती है। हार इसीलिए मालूम होती है, क्योंकि तुम जीतना चाहते हो। अगर तुम हार को स्वीकार कर लो तो फिर हार कैसे मालूम होगी! तुम्हें अपमान इसीलिए तो अपमान मालूम होता है, क्योंकि तुम मान चाहते हो। अगर मान ही न चाहो तो अपमान कैसा!

इसे थोड़ा समझना! तुम्हें निर्धनता इसीलिए तो सालती है, खलती है, क्योंकि धन का पागलपन चढ़ा हुआ है। अगर धन का पागलपन न हो, तो निर्धनता क्यों सालेगी, क्यों खटकेगी? तुम्हें जो चीज अखरती हो, खयाल कर लेना, उससे उलटे की तुम्हारे भीतर चाह है। फिर तुम्हें अखरती ही रहेगी, फिर तुम्हारे पास कितना ही हो जाए!

अमरीका का बड़ा करोड़पति एंड्रू कारनेगी मरा तो दस अरब रुपए छोड्कर मरा, लेकिन मरते वक्त भी बेचैन था और परेशान था। और जब उसकी आत्मकथा लिखने वाले लेखक ने उससे दो दिन पहले पूछा, कि आप तो प्रसन्न मर रहे होंगे! क्योंकि आप दुनिया के सबसे बड़े धनी हैं, इतना नगद पैसा किसी के पास नहीं है जितना आपके पास है! एंड्रू कारनेगी ने कहा, कहां  की बातें कर रहे हो? मैं असफल आदमी! मैं रोता हुआ मर रहा हूं। क्योंकि मैंने योजना बनायी थी सौ अरब रुपए इकट्ठे करने की और दस ही अरब कर पाया। यह भी कोई जीत है, नब्बे अरब की हार है।


अब तुम सोचो, अगर सौ की योजना हो तो स्वभावत: दस अरब रुपए कुछ नहीं मालूम पड़ते। नब्बे अरब की हार! और अगर तुमने कुछ भी न पाना चाहा हो तो दस पैसे भी बहुत मालूम पड़ते हैं कि दस पैसे मिल गए। चाहा तो तुमने यह भी नहीं था।
इसलिए फकीर छोटी —छोटी चीज से प्रसन्न हो जाता है। संन्यासी छोटी—छोटी चीज से प्रसन्न हो जाता है। मान ही नहीं पाता कि मेरी कोई योग्यता तो थी ही नहीं और इतना मिल गया! कोई कारण तो न था कि मिले और मिल गया। तो उसे प्रभु की अनुकंपा मालूम होती है, प्रसाद मालूम होता है।

और दूसरी तरफ संसारी है, कितना ही मिलता चला जाए, और उसकी रींगा —झींगी, उसका रोना— धोना बना रहता है! वह सिर पीटता ही रहता है। कुछ न कुछ कमी खलती ही रहती है—कुछ और चाहिए, कुछ और चाहिए। चाह का कोई अंत नहीं है। इसलिए तुम कितना ही पा लो, चाह सदा आगे छलांग लगा जाती है और रोना जारी रहता है।
तुम पूछते हो कि 'क्या सारी जिंदगी हारे ही हारे जीना होगा?'
मैं तुमसे कहता हूं तुम पर निर्भर है। अगर जीतकर जीना है तो जीत की बात ही छोड़ दो। जीयो, जीत की बात ही छोड़ दो। इसी को तो समर्पण का जीवन कहते हैं। हार को स्वीकार कर लो। यहां जीत का मतलब ही क्या है! यहां कोई पराया है, जिससे जीतना है! यहां कोई दुश्मन है! यहां एक ही परमात्मा है, जीतना किससे है? उसके चरणों में सिर रख दो और तुम जीत गए। इसीलिए तो कहते हैं कि प्रेम में जो हार जाता है, वह जीत गया। प्रेम की हार जीत है।

तुम अहंकार की जीत पाना चाहते हो, हारोगे—हारते ही रहोगे, अहंकार की हर जीत से नयी हार निकलेगी। और प्रेम की हर हार नयी जीत का द्वार खोल देती है। इस विरोधाभास को समझना, यह जीवन का परम नियम है, क्योंकि यहां कोई पराया नहीं है। ये वृक्ष, ये चांद—तारे, ये लोग, ये पशु—पक्षी, ये सब तुम्हारे हैं, ये तुम हो, यह तुम्हारा ही फैलाव है। तुम इनके हो, ये तुम्हारे हैं, यहां अलग कौन है! यहां अलग— थलग होने का उपाय क्या है? किससे जीत रहे हो?
ऐसा समझो कि सागर की दो लहरें एक—दूसरे से कशमकश कर रही हैं, कुश्तम—कुश्ती कर रही हैं कि जीतना है और किसी को पता नहीं, दोनों को खयाल नहीं कि हम एक ही सागर की लहरें हैं, जीतना किससे?

समझो कि मेरे बाएं और दाएं हाथ कुश्ती करने लगें —चाहो तो करवा सकते हो कुश्ती दोनों हाथों की, क्या अड़चन है, लड़ा दो! और तब मुश्किल खड़ी हो सकती है कि कौन जीते, कौन हारे! फिर तुम्हारी मर्जी, चाहे बाएं को जिता लो, चाहे दाएं को जिता लो। मगर दोनों हालत में बात फिजूल थी। दोनों हाथ तुम्हारे, कैसी हार, कैसी जीत! यहां दूसरा नहीं है, दूजा नहीं है।
इस अनुभव का नाम ही समर्पण है कि यहां कोई दूसरा नहीं है, हम ही हैं। तो न अब कोई हार है, अब न कोई जीत है।
तुम पर निर्भर है। समर्पण जिसने किया, वह जीत गया। जो हारा, वह जीत गया।
            इस तरह तो दर्द घट सकता नहीं
            इस तरह तो वक्त कट सकता नहीं
            आस्तीनों से न आंसू पोंछिए
            और ही तदबीर कोई सोचिए
            यह अकेलापन अंधेरा यह उदासी यह घुटन
            द्वार तो हैं बंद, भीतर किस तरह झांके किरन
            बंद दरवाजे जरा से खोलिए
            रोशनी के साथ हंसिए, बोलिए
            मौन पीले पात सा झर जाएगा
            तो हृदय का घाव खुद भर जाएगा
            एक सीढी है हृदय में भी महज घर में नहीं
            सर्जना के दूत आते हैं सभी होकर वहीं
            ये अहं की श्रृंखलाएं तोड़िए
            और कुछ नाता गली से जोडिए  
            जब सड़क का शोर भीतर आएगा
            तब अकेलापन स्वयं मर जाएगा
            आइए कुछ रोज कोलाहल भरा जीवन जिएं
            अंजुरी भर दूसरों के दर्द का अमृत पिएं
            आइए बाल अफवाहें सुनें
            फिर अनागत के नए सपने बुने
            यह स्लेटी कोहरा छंट जाएगा
            तो हृदय का दर्द खुद घट जाएगा
तुमने अपने को अकेला मान रखा है, अलग मान रखा है, इससे तुम पीड़ित हो।
            आइए कुछ रोज कोलाहल भरा जीवन जिएं
क्या मतलब? मतलब कि थोड़ी देर को इस विराट से अपने को जोडे, इन पक्षियों की चहचहाहट से जोड़े, इन वृक्षों के फूलों से जोडे, इन चांद—तारों की किरणों से जोड़े।
            बंद दरवाजे जरा से खोलिए
            रोशनी के साथ हंसिए, बोलिए
थोड़ा जुडिए। ऐसे अलग— थलग छोटे से द्वीप बनकर मत रह जाइए, महाद्वीपँ' बनिए। थोड़ा जोडिए अपने को। एक क्षण तो अलग जी सकते नहीं, फिर अलग होने का मतलब क्या है?
श्वास तो प्रतिपल चाहिए न बाहर से, भोजन तो प्रतिदिन चाहिए न बाहर से, जल तो प्रतिदिन चाहिए न बाहर से! जो अभी बाहर था अभी भीतर हो जाता है, फिर भीतर था, फिर बाहर हो जाता है। बाहर— भीतर, बाहर— भीतर, लेन—देन पूरे समय चल रहा है। एक क्षण को तुम बाहर से टूटकर जी कैसे सकते हो? इसलिए न कुछ भीतर, न कुछ बाहर।
            एक सीढ़ी है हृदय में भी महज घर में नहीं
            सर्जना के दूत आते हैं सभी होकर वहीं
जरा भीतर झांकिए, एक सीढ़ी है, जहा से हम परमात्मा से जुड़े हैं, विराट से जुड़े हैं।
            यह अकेलापन अंधेरा यह उदासी यह घुटन
            द्वार तो हैं बंद, भीतर किस तरह झांके किरन
            नहीं!
            इस तरह तो दर्द घट सकता नहीं
            इस तरह तो वक्त कट सकता नहीं
            आस्तीनों से न आंसू पोंछिए
            और ही तदबीर कोई सोचिए
क्या तदबीर करें कि जीवन हार—हार का न रह जाए? हार जाओ, फिर कोई हार नहीं। यही तदबीर है। मिट जाओ, फिर तुम्हें कोई न मिटा सकेगा, मौत भी न मिटा सकेगी। अहंकार को जाने दो। फिर तुम्हें मिटाने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं, न कोई हराने की सामर्थ्य किसी में है।
यह अहंकार ही अपमान करवाता है, यह अहंकार ही असफलता लाता है, यह अहंकार ही हराता है, यह अहंकार हजार जहर के घूंट पिलाता है, फिर भी तुम अमृत समझकर पीए जा रहे हो, तो हारोगे, तो रोओगे, तो तुम्हारा सारा जीवन आंसुओ की एक लंबी श्रृंखला हो जाएगी।
यह श्रृंखला फूलों में बदल सकती है। जरा सा रुख बदलिए। जरा द्वार खोलिए। जरा जुडिए, मिलिए। जरा देखिए कि सब एक है। इस उदघोषणा का नाम ही वेदांत है। इस उदघोषणा का नाम ही धर्म है। इस उदघोषणा का नाम ही बुद्धत्व है।*