Monday, June 29, 2015

मेडिसिन और मेडिटेशन

मेडिसिन और मेडिटेशन
अंग्रेजी के शब्द मेडिसिन और मेडिटेशन दोनों एक ही मूल से आते हैं। दोनों का मूल एक ही है क्योंकि दोनों से उपचार होता है। मेडिटेशन भीतर से उपचार करती है और मेडिसिन बाहर से
चिकित्सा कोई सामान्य व्यवसाय की तरह नहीं है। उसे सिर्फ किसी टेक्नोलाज़ी की तरह मत समझो, क्योंकि उसमें तुम्हें आदमियों पर काम करना पड़ता है। जब तुम किसी व्यक्ति की चिकित्सा करते हो तो ऐसा नहीं कि तुम मशीन को ठीक कर रहे हो। केवल जानकारी सवाल नहीं है, यह प्रेम का गहरे से गहरा सवाल है।
चिकित्सक के हाथ में मनुष्य का पूरा जीवन होता है, और मनुष्य का जीवन जटिल घटना है। कभी तुम से गलती हो जाए, तो वह गलती किसी व्यक्ति के जीवन के लिए घातक हो सकती है। इसलिए जब किसी की चिकित्सा का काम अपने हाथ में लो तो पूरी तरह प्रेम से भरे हुए जाओ।
चिकित्सा के क्षेत्र में जो लोग इस तरह जाते हैं, जैसे वे इंजीनियरिंग में जा रहे हों वे लोग डॉक्टर बनने के लिए ठीक नहीं हैं--वे गलत लोग हैं। जो लोग जीवन के प्रति प्रेम से भरे हुए नहीं है, वे चिकित्सा के व्यवसाय में गलत हैं। उन्हें किसी की कोई परवाह ही नहीं होगी; वे मनुष्यों के साथ मशीनों जैसा व्यवहार करेंगे। वे मनुष्यों के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे जैसा कोई मोटर मेकेनिक कार के साथ करता है। वे मरीज के प्राणों को तो महसूस ही नहीं कर पाएंगे। वे व्यक्ति का इलाज नहीं करेंगे, केवल उसके लक्षणों का इलाज करेंगे। यह बात अलग है कि वे जो भी करेंगे उसके प्रति वे पूरी तरह विश्वास से भरे होंगे--टेक्नीशियन को अपने काम पर विश्वास होता ही है।
लेकिन जब तुम मनुष्यों के साथ काम कर रहे हो तो तुम इतने निश्चिन्त नहीं हो सकते। वहां झिझक स्वाभाविक है। व्यक्ति कुछ भी करने से पहले दो तीन-बार सोचता है क्योंकि एक कीमती जीवन का सवाल है — जीवन जिसका सृजन नहीं किया जा सकता, जो एक बार गया तो बस गया। और हर व्यक्ति अनूठा होता है, उसकी जगह कभी भरी नहीं जा सकती, उसके जैसा कोई और न तो कभी हुआ और न होगा। चिकित्सक आग से खेल रहा होता है। झिझक स्वाभाविक है!
मरीज के प्रति श्रद्धा का भाव रखो। और उसका इलाज करते हुए दिव्य ऊर्जा के माध्यम बन जाओ। डॉक्टर ही मत बने रहो, आरोग्य ऊर्जा के माध्यम बन जाओ। बस वहां मरीज हो परमात्मा हो — तुम प्रार्थना की एक दशा में आ जाओ और परमात्मा को अपने मरीज की ओर बहने दो। मरीज तो बीमार है, वह उस ऊर्जा से संबंधित नहीं हो पा रहा। वह उस ऊर्जा से दूर पड़ गया है। वह स्वयं अपना उपचार करने की भाषा भूल गया है। वह असहाय अवस्था में है, उस पर तुम कुछ आरोपित नहीं कर सकते।
जो व्यक्ति स्वयं स्वस्थ हो, वह यदि माध्यम बन जाए तो बहुत सहयोगी हो सकता है। और यदि वह स्वस्थ व्यक्ति शरीर की संरचना के विषय में भी जानता हो तो उसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि दिव्य ऊर्जा उसे सूक्ष्म इशारे दे सकती है। तुम्हें उन इशारों को डीकोड भर करना है। यदि तुम चिकित्साशास्त्र के विषय में जानते हो तो बहुत आसानी से उन संकेतों के अर्थ खोल सकते हो। और तब तुम मरीज के साथ कुछ नहीं करते, परमात्मा ही करता है। तुम स्वयं को परमात्मा के हाथों में उपलब्ध कर देते हो, और चिकित्सा की अपनी पूरी जानकारी को काम करने देते हो। परमात्मा की आरोग्य ऊर्जा और तुम्हारी जानकारी के मिलन से जो घटित होता है वह उपयोगी होता है। और उससे कभी नुकसान नहीं हो सकता। तो स्वयं को विदा करो: परमात्मा को होने दो। चिकित्सा के क्षेत्र में उतरो तो ध्यान भी शुरू करो।
और तुम्हें शायद पता न हो कि अंग्रेजी के शब्द मेडिसिन और मेडिटेशन दोनों एक ही मूल से आते हैं। दोनों का मूल एक ही है क्योंकि दोनों से उपचार होता है। मेडिटेशन भीतर से उपचार करती है और मेडिसिन बाहर से। पुराने समय में वैद्य और संत अलग-अलग व्यक्ति नहीं हुआ करते थे? वह एक ही व्यक्ति होता था।

दौड़ना, जागिंग और तैरना

दौड़ना, जागिंग और तैरना
जब तुम गति में होते हो तो सजग रह पाना स्वाभाविक और सरल होता है। जब तुम शांत बैठे होते हो स्वाभाविक है कि सो जाओ। जब तुम अपने बिस्तर पर लेटे होते हो तो सजग रह पाना बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि पूरी परिस्थिति तुम्हें सोने में मदद करती है। लेकिन सक्रियता में स्वभावतः तुम सो नहीं सकते, तुम अधिक सजग होकर कार्य करते हो। समस्या एक यही है कि कृत्य यांत्रिक बन सकता है।
अपने शरीर, मन और आत्मा को पिघला कर एक करना सीखो। ऐसे उपाय खोजो कि तुम एक इकाई की भांति कार्य कर सको। दौड़ने वालों के साथ कई बार ऐसा होता है। शायद तुमने सोचा भी न हो कि दौड़ना भी ध्यान हो सकता है, लेकिन दौड़ने वालों को कई बार ध्यान के अपूर्व अनुभव हुए हैं। और वे चकित हुए, क्योंकि इसकी तो वे खोज भी नहीं कर रहे थे — कौन सोचता है कि कोई दौड़ने वाला परमात्मा का अनुभव कर लेगा, परंतु ऐसा हुआ है। और अब तो दौड़ना अधिकाधिक एक नए प्रकार का ध्यान बनता जा रहा है। जब दौड़ रहे हों तो ऐसा हो सकता है।
यदि तुम कभी एक दौड़ाक रहे होओ, यदि तुमने सुबह-सुबह दौड़ने का आनंद लिया हो जब हवा ताजी और युवा हो और सारा विश्व नीदं से लौटता हो, जागता हो — तुम दौड़ रहे होओ और तुम्हारा शरीर सुंदर रूप से गति कर रहा हो; ताजी हवा, रात के अंधकार से गुजर कर जन्मा नया संसार — जैसे हर चीज गीत गाती हो — तुम बहुत जीवंत अनुभव करते हो....एक क्षण आता है जब दौड़ने वाला विलीन हो जाता है, और बस दौड़ना ही बचता है। शरीर, मन और आत्मा एक साथ कार्य करने लगते हैं; अचानक एक आंतरिक आनंदोन्माद का आविर्भाव होता है। दौडाक कई बार संयोग से चैथे के, तुरीय के अनुभव से गुजर जाते हैं, यद्यपि वे उसे चूक जाएंगे — वे सोचेंगे कि शायद दौड़ने के कारण ही उन्होंने इस क्षण का आनंद लिया: कि प्यारा दिन था, शरीर स्वस्थ था और संसार सुदंर, और यह अनुभव एक भावदशा मात्र थी। वे उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देते — परंतु वे ध्यान दें, तो मेरी अपनी समझ है कि एक दौड़ाक किसी अन्य की अपेक्षा अधिक सरलता से ध्यान के करीब आ सकता है।
‘जागिंग’ (लयबद्ध धीरे-धीरे दौड़ना) अपूर्व रूप से सहयोगी हो सकती है, तैरना बहुत सहयोगी हो सकता है। इन सब चीजों को ध्यान में रूपांतरित कर लेना है।
ध्यान की पुरानी धारणाओं को छोड़ दो — कि किसी वृक्ष के नीचे योग मुद्रा में बैठना ही ध्यान है। वह तो बहुत से उपायों में से एक उपाय है, और हो सकता है वह कुछ लोगों के लिए उपयुक्त हो, लेकिन सबके लिए उपयुक्त नहीं है। एक छोटे बच्चे के लिए ध्यान नहीं, उत्पीड़न है। एक युवा व्यक्ति जो जीवंत और स्पंदित है, उसके लिए यह दमन होगा, ध्यान नहीं।
सुबह सड़क पर दौड़ना शुरू करो। आधा मील से शुरू करो और फिर एक मील करो और अंततः कम से कम तीन मील तक आ जाओ। दौड़ते समय पूरे शरीर का उपयोग करो; ऐसे मत दौड़ो जैसे कसे कपड़े पहने हुए हों। छोटे बच्चे की तरह दौड़ो, पूरे शरीर का — हाथों और पैरों का — उपयोग करो और दौड़ो। पेट से गहरी श्वास लो। फिर किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ, विश्राम करो, पसीना बहने दो और शीतल हवा लगने दो; शांत अनुभव करो। यह बहुत गहन रूप से सहयोगी होगा।
कभी-कभी बिना जूते-चप्पल पहने नंगे पांव जमीन पर खड़े हो जाओ और शीतलता को, कोमलता को, ऊष्मा को महसूस करो। उस क्षण में पृथ्वी जो कुछ भी देने को तैयार है, उसे अनुभव करो और अपने में बहने दो। और अपनी ऊर्जा को पृथ्वी में बहने दो। पृथ्वी के साथ जुड़ जाओ।
यदि तुम पृथ्वी से जुड़ गये, तो जीवन से जुड़ गये। यदि तुम पृथ्वी से जुड़ गये, तो अपने शरीर से जुड़ गए। यदि तुम पृथ्वी से जुड़ गए, तो बहुत संवेदनशील और केंद्रस्थ हो जाओगे — और यही तो चाहिए।
दौड़ने में कभी भी विशेषज्ञ मत बनना; नौसिखिए ही बने रहना ताकि सजगता रखी जा सके। जब कभी तुम्हें लगे कि दौड़ना यंत्रवत हो गया है, तो उसे छोड़ दो; फिर तैर कर देखो। यदि वह भी यंत्रवत हो जाए, तो नृत्य को लो। यह बात याद रखने की है कि कृत्य मात्र एक परिस्थिति है कि जागरण पैदा हो सके। जब तक वह जागरण निर्मित करे तब तक ठीक है। जब वह जागरण पैदा करना बंद कर दे तो किसी काम का न रहा; किसी और कृत्य को पकड़ो जहां तुम्हें फिर से सजग होना पड़े। किसी भी कृत्य को यंत्रवत मत होने दो।

जरा नाता बनाएँ जगत से


हम कभी बच्चे को नहीं सिखाते, नहीं सिखा पाते...न हमने सीखा, न सिखा पाते हैं कि वह जो चारों तरफ विराट ब्रह्मांड फैला हुआ है, उससे हमारा कोई संबंध है। हम सिर्फ आदमियों से संबंध जुड़वाते हैं। हम कहते हैं, यह रही तेरी माँ, यह रहे तेरे पिता, यह रहे तेरे भाई, यह रही तेरी बहन। लेकिन चाँद-तारों से कोई संबंध है? समुद्र की लहरों से कोई संबंध है? आकाश में भटकने वाले बादलों से कोई संबंध है? वृक्षों पर खिलने वाले फूलों से कोई संबंध है? धूप से कोई संबध है? छाया से कोई संबध है, रेत से, पत्थरों से कोई संबंध है, पृथ्वी से कोई संबंध है?

नहीं कोई संबंध नही है। आदमी ने आदमी के बीच संबंध बना लिए हैं और सारे से संबंध तोड़ लिए हैं। जिंदगी कभी भी रसपूर्ण नहीं हो सकती, जब तक कि हम समग्र से न जुड़ जाएँ। ऐसे हम जुड़े हैं, लेकिन मन से टूट गए हैं। आप समुद्र के किनारे बैठकर कभी आनंदित हो लेते हैं, हों क्षण भर को, पर कभी आपने जाना है कि आपको यह आंनद क्यों हो रहा है? यह समुद्र के पास आपको शांति क्यों मालूम पड़ रही है? यह समुद्र की गर्जन में आपको अपनी आवाज क्यों सुनाई पड़ती है, कभी आपने सोचा है?

शायद आपको पता भी न हो- करोड़ों-करोड़ों वर्ष पहले आदमी का पहला जन्म भी तो समुद्र में ही हुआ था, और आज भी आदमी के भीतर जो खून बह रह रहा है, उसमें उतना ही नमक है जितना समुद्र के पानी में है। समुद्र में पानी और नमक का जो अनुपात है वही अनुपात आज भी आदमी के भीतर के पानी और नमक में है। आज भी वही पानी बह रहा है। माँ के पेट में जो बच्चा गर्भ में होता है, उस गर्भ को चारों तरफ से पानी घेरे रहता है, उसमें अनुपात नमक का वही है जो समुद्र में है।

उसी से तो वैज्ञानिक पहली दफा इस खयाल पर पहुँचे, हो न हो किसी तरह आदमी कभी पहली दफा, उसका पहला समुद्र से शुरू हुआ होगा। आज भी उसके पास पानी का अनुपात वही है। आज भी बच्चा उसी पानी में तैरता और बड़ा होता है। आज भी हमारे शरीर में नमक का जरा-सा अनुपात गिर जाए तो हम मुश्किल में पड़ जाएंगे। नमक का अनुपात वही रहना चाहिए, जो समुद्र में है। जब आप समुद्र के पास जाते हैं, तब आपके शरीर और पूरे व्यक्तित्व में समुद्र कोई सहानुभूति की लहरें उठा देता है आप उसी के हिस्से हैं। आप कभी मछली थे। हम सब कभी मछली थे। उसके निकट जाकर हमारे भीतर वही लहरें उठ आती हैं।

जब पहाड़ पर जाते हैं और देखते हैं हरे वृक्षों के विस्तार को तो मन एकदम शांत होता है, हरे विस्तार को देखकर आनंदित होता है। क्या बात है हरे रंग में? हमारे सारे खून में, हमारी सारी हड्डियों में वृक्षों से लिया हुआ सब कुछ घूम रहा है। हम उनसे ही बने हैं, हम उनसे ही जुड़े हैं।

जब ठंडी हवाओं की लहरें आती हैं और आप उन हवाओं में बहे चले जाते हैं, तो एक खुशी, एक प्रफुल्लता भर जाती है। क्यों? क्योंकि हवा हमारा प्राण है। हम जुड़े हैं, हम अलग नहीं है।

जब रात को पूर्णिमा के चाँद को आप देखते हैं तो कोई गीत आपके भीतर झरने लगता है और कोई कविता फूटने लगती है। अंग्रेजी में शब्द है लुनार, चाँद के लिए। और पागल को कहते हैं लुनाटिक। वह भी उसी से बना हुआ शब्द है। हिंदी में भी कहते है पागल को चाँदमारा।

ऐसा खयाल है कि पूर्णिमा के दिन जितने लोग पागल होते हैं, किसी और दिन नहीं होते हैं। कुछ कारण है। पूर्णिमा का चाँद हमारे भीतर न मालूम कैसी लहरें ले आता है। समुद्र में ही लहरें नहीं आतीं, समुद्र ही ऊपर उठकर चाँद को छूने चले जाता है, ऐसा नहीं है। हमारे प्राण भी किन्हीं गहरी गहराइयों में, हमारे प्राणों की तरंगें भी चाँद को छूने को उठ जाती हैं। लेकिन चाँद से हमारा कोई नाता नहीं है, कोई रिश्ता नहीं है।

हमने सब तरफ से जिंदगी को तोड़ लिया है। और अगर आदमी सब तरफ से जिंदगी को तोड़ेगा और सिर्फ आदमियों की दुनिया बनाएगा, वह दुनिया उदास होगी, दुखी होगी, वह दुनिया सच्ची नहीं होगी, क्योंकि वह दुनिया वास्तविक नहीं है। उसकी जड़ें पूरे ब्रह्मांड पर फैलनी चाहिए। मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूँ जिसका संबंध आदमियों से ही नहीं है, जिसका संबंध सारे जीवन में फैल गया है। एक पशु के साथ भी उसका संबंध है, एक पौधे के साथ भी, एक पक्षी के साथ भी।

आकाश में भी देखा है कभी कोई परों पर तैरती हुई चील को? उसे देखते रहें तो ध्यान में चले जाएँगे। कैसा निष्प्रयास, इफर्टलेस एक चील आकाश में परों को फैलाकर खड़ी रह जाती है! कभी उसे गौर से देखते रहें तो भीतर कोई चील आपके भी पर फैला देगी और बह जाएगी।

जिंदगी सब तरफ से जुड़ी है और आदमी ने उसे तोड़ दिया है। तोड़ी हुई जिंदगी विक्षिप्त हो गई है। इसलिए मैंने कहा, हम समाज नहीं बना पाए, हमने अजायबघर बना लिया है। समाज बनाने में अभी हम बहुत दूर हैं। हमने कटघरे बना लिए हैं, आदमी को प्रकृति से तोड़ दिया है और एक कृत्रिम आदमी को हमने खड़ा कर दिया है। वह आदमी बड़े धोखे का है। एक छोटी-सी कहानी और मैं अपनी बात पूरी करूगाँ ।

एक कवि एक गाँव के पास से गुजरता था, उसने खेत में एक झूठे आदमी को खड़ा हुआ देखा। आपने भी खेतों में झूठे आदमी देखे होंगे, अगर खेत देखे हों, तो वह झूठा आदमी भी देखा होगा, क्योंकि अब तो खेत देखना भी बड़ी मुश्किल बात हो गई है। अभी लंदन में बच्चों का एक सर्वे किया गया तो दस लाख बच्चों ने गाय नहीं देखी है। वे बच्चे पूछने लगे गाय यानी क्या? तीन लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने खेत नहीं देखा। 

वह कवि खेत के पास से गुजर रहा है। वहाँ उसने एक झूठे आदमी को खड़ा देखा। उस कवि के मन में बड़ी दया आ गई। वह उस झूठे आदमी के पास गया। हंडी का सिर है, डंडे लगे हैं, कुरता पहने है। उस कवि ने उस झूठे आदमी से पूछा मित्र, खेत खेत में खड़े-खड़े थक जाते होगे, और काम भी बड़ा उबाने वाला है। वर्र्षा, सर्दी, रात-दिन, धूप, गर्मी कुछ भी हो, तुम यहीं खड़े रहते हो। ऊब नहीं जाते हो? घबरा नहीं जाते हो? कभी छुट्टी नहीं मनाते हो?

उस झूठे आदमी ने कहा, बड़ा मजा है इस काम में। दूसरों को डराने में इतना मजा आता है कि अपनी तकलीफ पता ही नही चलती। रात-दिन डराता हूँ। कोई आ जाता है, फिर उसको डरा देता हूँ। इतना मजा आता है कि फुरसत ही नहीं मिलती दूसरों को डरने से कि मैं अपनी चिंता करूँ। 

वह कवि सोचने लगा। उसने कहा बात तो बड़ी ठीक कहते हो। मैं भी जब किसी को डरा पाता हँू तो बड़ा आनंद आता है। वह झूठा आदमी हँसने लगा, उसने कहा तुम भी झूठे आदमी हो, क्योंकि सिर्फ झूठे आदमियों को ही दूसरों को डराने में आंनद आता है। तुम भी घाँस-फूस के आदमी हो, तुम्हारे ऊपर भी हंडी लगी है और डंडे लगे हैं और तुमने कुरता पहन लिया है।

मैं सोचने लगा, झूठे आदमी और सच्चे आदमी में फर्क क्या है? हंडी लगी हो, डंडे लगे हों , कुरता पहना हो- इसमें और मुझमें फर्क क्या है? 

फर्क इतना ही है कि यह अपने में बंद है, इसकी कोई जड़ें जीवन से जुड़ी हुई नही हैं। इसकी कहीं श्वास नहीं जुड़ी है। किसी आकाश से इसका मन नहीं जुड़ा है। किन्हीं वृक्षों से इसका खून नहीं जुड़ा है। किन्हीं समुद्रों से इसका पानी नहीं जुड़ा है। इसके भीतर कोई जोड़ नहीं है बाहर से। यह सब तरफ से टूटा अपने में बंद है। इसका कोई जोड़ ही नहीं है, इसलिए यह झूठा है।

और सच्चे आदमी का क्या मतलब होता है? कि वह जुड़ा है- रग-रग, रेशा-रेशा, कण-कण से। सूरज से जुड़ा है, चाँद से जुड़ा है। समुद्रों से जुड़ा है। आकाश से जुड़ा है, सबसे जुड़ा है। जितना जो आदमी ज्यादा जुड़ा है, उतना सच्चा होगा और जितना ज्यादा टूटा है, उतना हंडी रह जाएगी, लकड़ियाँ रह जाँएगी, कुरता रह जाएगा।

और करीब-करीब आदमी झूठा हो गया है। सारी मनुष्यता हंडी वाली, कुरते वाली, लकड़ी वाली मनुष्यता हो गई है। वहाँ कोई आत्मा नहीं है, क्योंकि आत्मा तो अंनत जोड़ से उत्पन्न होने वाली संभावना है।

सुखी रहने का सफल मंत्र

दुख पर ध्यान दोगे तो हमेशा दुखी रहोगे, सुख पर ध्यान देना शुरू करो। दअसल, तुम जिस पर ध्यान देते हो वह चीज सक्रिय हो जाती है। ध्यान सबसे बड़ी कुंजी है।



दुख को त्यागो। लगता है कि तुम दुख में मजा लेने वाले हो, तुम्हें कष्ट से प्रेम है। दुख से लगाव होना एक रोग है, यह विकृत प्रवृत्ति है, यह विक्षिप्तता है। यह प्राकृतिक नहीं है, यह बदसूरत है।

पर मुश्किल यह है कि सिखाया यही गया है। एक बात याद रखो कि मानवता पर रोग हावी रहा है, निरोग्य नहीं और इसका भी एक कारण है। असल में स्वस्थ व्यक्ति जिंदगी का मजा लेने में इतना व्यस्त रहता है कि वह दूसरों पर हावी होने की फिक्र ही नहीं करता। 

अस्वस्थ व्यक्ति मजा ले ही नहीं सकता, इसलिए वह अपनी सारी ऊर्जा वर्चस्व कायम करने में लगा देता है। जो गीत गा सकता है, जो नाच सकता है, वह नाचेगा और गाएगा, वह सितारों भरे असामान के नीचे उत्सव मनाएगा। लेकिन जो नाच नहीं सकता, जो विकलांग है, जिसे लकवा मार गया है, वह कोने में पड़ा रहेगा और योजनाएँ बनाएगा कि दूसरों पर कैसे हावी हुआ जाए। वह कुटिल बन जाएगा। जो रचनाशील है, वह रचेगा। जो नहीं रच सकता, वह नष्ट करेगा, क्योंकि उसे भी तो दुनिया को दिखाना है कि वह भी है।

जो रोगी है, अस्वस्थ है, बदसूरत है, प्रतिभाहीन है, जिसमें रचनाशीलता नहीं है, जो घटिया है, जो मूर्ख है, ऐसे सभी लोग वर्चस्व स्थापित करने के मामले में काफी चालाक होते हैं। वे हावी रहने के तरीके और जरिए खोज ही निकालते हैं। वे राजनेता बन जाते हैं। वे पुरोहित बन जाते हैं। और चूँकि जो काम वे खुद नहीं कर सकते, उसे वे दूसरो को भी नहीं करने दे सकते। इसलिए वे हर तरह की खुशी के खिलाफ होते हैं।

जरा इसके पीछे का कारण देखो। अगर वह खुद जिंदगी का मजा नहीं ले सकता तो वह कम से कम तुम्हारे मजे में जहर तो घोल ही सकता है। इसीलिए सभी तरह के विकलांग एक जगह जमा होकर अपनी बुद्धि लगाते हैं ताकि जोरदार नैतिकता का ढाँचा खड़ा कर सकें और फिर उसके आधार पर हर चीज की भर्त्सना कर सकें। बस कुछ न कुछ नकारात्मक खोज निकालना है, वह तुम्हें मिल ही जाएगा, क्योंकि वह तो समस्त सकारात्मकता के अंग के रूप में होता ही है।

जब तुम प्रेम करते हो, तो नफरत भी कर सकते हो। जो व्यक्ति नपुंसक है और प्रेम नहीं कर सकता, वह हमेशा नकारात्मक पर ही जोर देगा। वह हमेशा नकारात्मक को ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश करेगा। वह हमेशा तुमसे कहेगा- अगर तुम प्रेम में पड़े तो दुख उठाओगे। तुम जाल में फँस जाओगे, तुम्हें तकलीफें भोगनी होंगी। और, स्वाभाविक रूप से जब भी घृणा के क्षण आएँगे और तुम दुख का सामना करोगे तो तुम्हें वह व्यक्ति याद आएगा कि वह सही कहता था।

फिर, घृणा के क्षण तो आने ही हैं। फिर एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि मनुष्य रोगों के प्रति ज्यादा सचेत होता है न कि स्वास्थ्य के प्रति। जब स्वस्थ होते हो तो तुम अपने शरीर के बारे में भूल जाते हो। लेकिन, जैसे ही सिर दर्द होता है या और कोई दर्द, या फिर पेट का दर्द तो देह को नहीं भूल पाते। देह होती है तब, प्रमुखता से होती है, बड़े जोर से होती है, वह तुम्हारा दरवाजा खटखटाती है। वह तुम्हारा ध्यान खींचती है।

जब तुम प्रेम में होते हो और खुश होते हो तो भूल जाते हो। लेकिन, जब संघर्ष, नफरत और गुस्सा होता है तो तुम उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने लगते हो। ऊपर से वे विकलांग लोग, वे नैतिकतावादी, वे पुरोहित, वे राजनेता, वे मिल कर चिल्लाते हैं एक स्वर से कि देखो, हमने तुमसे पहले ही कहा था, और तुमने हमारी नहीं सुनी। प्रेम को त्यागो। प्रेम दुख बनाता है। इसे त्यागो, उसे त्यागो, जीवन को त्यागो। इन बातों को अगर बार-बार दोहराया जाता रहता है तो उनका असर होने लगता है। लोग उनके सम्मोहन में फँस जाते हैं।

जीवन से प्रेम करो, और अधिक खुश रहो। जब तुम एकदम प्रसन्न होते हो, संभावना तभी होती है, वरना नहीं। कारण यह है कि दुख तुम्हें बंद कर देता है, सुख तुम्हें खोलता है। क्या तुमने यही बात अपने जीवन में नहीं देखी? जब भी तुम दुखी होते हो, बंद हो जाते हो, एक कठोर आवरण तुम्हें घेर लेता है। तुम खुद की सुरक्षा करने लगते हो, तुम एक कवच-सा ओढ़ लेते हो। वजह यह है कि तुम जानते हो कि तुम्हें पहले से काफी तकलीफ है और अब तुम और चोट बर्दाश्त नहीं कर सकते। दुखी लोग हमेशा कठोर हो जाते हैं। उनकी नरमी खत्म हो जाती है, वे चट्टानों जैसे हो जाते हैं।

एक प्रसन्न व्यक्ति तो एक फूल की तरह है। उसे ऐसा वरदान मिला हुआ है कि वह सारी दुनिया को आशीर्वाद दे सकता है। वह ऐसे वरदान से संपन्न है कि खुलने की जुर्रत कर सकता है। उसके लिए खुलने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सभी कुछ कितना अच्छा है, कितना मित्रतापूर्ण है। पूरी प्रकृति उसकी मित्र है। वह क्यों डरने लगा? वह खुल सकता है। वह इस अस्तित्व का आतिथेय बन सकता है। वही होता है वह क्षण जब दिव्यता तुममें प्रवेश करती है। केवल उसी क्षण में प्रकाश तुममें प्रवेश करता है, और तुम बुद्धत्व प्राप्त करते हो।

भय की ऊर्जा को समझो

Share on twitterShare on google_plusone_shareShare on printMore Sharing Servको न मारा जा सकता है न जीता जा सकता है, केवल समझा जा सकता है और केवल समझ ही रूपांतरण लाती है, बाकी कुछ नहीं। अगर तुम अपने भय को जीतने की कोशिश करोगे, तो यह दबा रहेगा, तुम्हारे भीतर गहरे में चला जाएगा। उससे कुछ सुलझेगा नहीं, बल्कि चीजें और उलझ जाएँगी।
जब भय उठे तो तुम उसे दबा सकते हो- भय को जीतने का यही अर्थ है। भय को तुम दबा सकते हो; इतने गहरे में दबा सकते हो कि तुम्हारी चेतना से वह बिलकुल गायब हो जाए। तब तुम्हें कभी उसका पता भी न चलेगा, लेकिन वह बेसमेंट में पड़ा रहेगा और अपना काम जारी रखेगा। वह तब भी तुम पर हावी होगा, तुम पर कब्जा करेगा, लेकिन ऐसे परोक्ष ढंग से कब्जा करेगा कि तुम्हें उसका पता भी न चले। लेकिन तब खतरा और भी गहरा हो जाएगा। अब तुम उसे समझ भी न पाओगे।

तो भय को जीतना नहीं है। न ही उसे मारना है। भय को तुम मार नहीं सकते, क्योंकि उसमें एक प्रकार की ऊर्जा होती है और कोई भी ऊर्जा कभी नष्ट नहीं की जा सकती। तुमने कभी देखा भय के समय तुममें एकदम से बड़ी ऊर्जा आ जाती है? ठीक जैसे क्रोध के समय ऊर्जा आ जाती है; वे दोनों एक ही ऊर्जा के दो आयाम हैं। क्रोध आक्रामक है और भय अनाक्रमक है। भय है क्रोध की गिनेटिव अवस्था और क्रोध है भय की पॉजिटिव अवस्था।

जब तुम क्रोध में होते हो तो तुममें कितनी ताकत आ जाती है, ऊर्जा भर जाती है! जब तुम क्रोध में होते हो तो एक बड़ी चट्टान भी उठाकर फेंक सकते हो; आमतौर पर उतनी बड़ी चट्टान तो तुम हिला भी नहीं सकते। क्रोध के समय तुम तीन-चार गुना ज्यादा शक्तिशाली हो जाते हो। उस समय तुम ऐसी कई चीजें कर सकते हो, जो क्रोध के बिना संभव ही नहीं है।

और भय के समय तुम इतना तेज भाग सकते हो कि ओलिंपिक खिलाड़ी भी ईर्षा करने लगे। भय से ऊर्जा पैदा होती है; भय ऊर्जा ही है, और ऊर्जा को कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। अस्तित्व से ऊर्जा की एक चुटकी भी नष्ट नहीं की जा सकती। इस बात को हमेशा याद रखो, वरना तुम कुछ गलत कर बैठोगे।

तुम किसी भी चीज को नष्ट नहीं कर सकते, केवल उसका रूप बदल सकते हो। छोटे से कंकड़ को भी तुम नष्ट नहीं कर सकते। रेत का एक छोटा-सा कण भी नष्ट नहीं किया जा सकता। वह केवल अपना रूप बदल लेगा। पानी की एक बूँद को भी तुम नष्ट नहीं कर सकते। हो सकता है तुम उसे बर्फ बना दो या भाप बना दो, लेकिन वह मौजूद रहेगी। कहीं न कहीं वह रहेगी, इस अस्तित्व से बाहर तो जा नहीं सकती।

भय को भी तुम नष्ट कर सकते। और युगों-युगों से यही किया गया है- लोग भय को नष्ट करने की, क्रोध को, काम को, लोभ को और ऐसी कितनी ही चीजों को नष्ट करने की कोशिश करते रहे हैं। पूरी दुनिया इसी तरह कोशिश करती रही है, और परिणाम क्या हुआ? मनुष्य उथल-पुथल हो गया है। कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, सब कुछ वैसा का वसा है, बस चीजें उलझ गई हैं। कुछ भी नष्ट करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि पहली बात कुछ भी नष्ट किया ही नहीं जा सकता। तो फिर क्या करना है?

भय को तुम्हें समझना है। भय क्या है? कैसे उठता है भय? कहाँ से आता है? उसका संदेश क्या है? बिना किसी पक्षपात के उसमें झाँको, तभी तुम समझ पाओगे? अगर तुम्हारी पहले से ही धारणा बनी हुई है कि भय गलत है, कि भय नहीं होना चाहिए- 'मुझे भयभीत नहीं होना चाहिए' - तब तुम उसमें झाँक न पाओगे। भय का आमना-सामना तुम कैसे कर सकते हो? अगर तुमने पहले से ही निर्णय ले लिया है कि भय तुम्हारा दुश्मन है, तो उसकी आँखों में तुम कैसे झाँक सकते हो? दुश्मन की आँखों में कोई नहीं देखता। अगर तुम सोचते हो कि यह गलत चीज है तो तुम उससे बचकर निकलना चाहोगे, उसकी उपेक्षा करना चाहोगे।

पहले सारे पूर्वाग्रह, सारी धारणाएँ, पूरी निंदा को छोड़ो। भय एक तथ्य है। उसका सामना करना है, उसको समझना है। और केवल समझ के द्वारा ही उसे रूपांतरित किया जा सकता है। वास्तव में समझने से ही वह रूपांतरित हो जाता है। बाकी कुछ और करने की जरूरत नहीं है; समझ ही उसे रूपांतरित कर देती है।

भय क्या है? पहली बात : भय हमेशा किसी इच्छा के आसपास पनपता है। तुम प्रसिद्ध होना चाहते हो, संसार के सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति होना चाहते हो- फिर भय शुरू होता है। अगर ऐसा न हो सका तो क्या होगा? भय लगता है। भय उस इच्छा का बाइ-प्रोडक्ट है।

तुम संसार के सबसे धनवान व्यक्ति बनना चाहते हो- सफलता न मिली तो क्या होगा? सो भीतर से तुम कँपने लगते हो, भय शुरू हो जाता है। तुम्हारी किसी स्त्री पर मालकियत है; तुम भयभीत होते हो कि हो सकता है कल तुम्हारी उस पर मालकियत न रहे, वह किसी और के पास चली जाए। अगर वह जीवित है तो वह जा सकती है, सिर्फ मुर्दा स्त्रियाँ कहीं नहीं जातीं। केवल एक लाश पर ही मालकियत की जा सकती है- उसके साथ कोई भय नहीं है। वह हमेशा तुम्हारे पास रहेगी।

फर्नीचर पर तुम कब्जा कर सकते हो, उसके साथ कोई भय नहीं है। लेकिन कौन जानता है? कल वह तुम्हारी नहीं थी, आज तुम्हारी है, कौन जानता है कल वह किसी और की हो जाए? भय लगता है। यह भय मालकियत करने की इच्छा से उठ रहा है, यह एक बाइ-प्रोडक्ट है, क्योंकि तुम कब्जा करना चाहते हो, इसलिए भय है।

अगर तुम कब्जा करना न चाहो तो फिर कोई भय नहीं है। अगर तुम्हारी ऐसी कोई इच्छा न हो कि भविष्य में तुम यह बनना चाहोगे या वह बनना चाहोगे तो फिर कोई भय नहीं है। नगर तुम स्वर्ग जाना नहीं चाहते तो कोई भय नहीं होगा, कोई धर्मगुरु तुम्हें डरा न पाएगा। अगर तुम कहीं जाना नहीं चाहते तो कोई भी तुम्हें डरा नहीं पाएगा।

अगर तुम इसी क्षण में जीने लगो तो भय मिट जाता है। भय वासना के कारण पैदा होता है। तो मूलतः वासना भय को पैदा करती है। झाँको भय में। जब भी भय लगे तो देखो कि वह कहाँ से आ रहा है- कौन सी इच्छा, कौन सी वासना उसे निर्मित कर रही है- और फिर उसकी व्यर्थता को देखो।

Sunday, June 21, 2015

जिंदगी की कहानी

टॉल्सटॉय की प्रसिद्ध कहानी है कि एक आदमी के घर एक संन्यासी मेहमान हुआ- एक परिव्राजक। रात गपशप होने लगी, उस परिव्राजक ने कहा कि तुम यहाँ क्या छोटी-मोटी खेती में लगे हो। साइबेरिया में मैं यात्रा पर था तो वहाँ जमीन इतनी सस्ती है मुफ्त ही मिलती है। तुम यह जमीन छोड़-छाड़कर, बेच-बाचकर साइबेरिया चले जाओ। वहाँ हजारों एकड़ जमीन मिल जाएगी इतनी जमीन में। वहाँ करो फसलें और बड़ी उपयोगी जमीन है और लोग वहाँ के इतने सीधे-सादे हैं कि करीब-करीब मुफ्त ही जमीन दे देते हैं।

उस आदमी को वासना जगी। उसने दूसरे दिन ही सब बेच-बाचकर साइबेरिया की राह पकड़ी। जब पहुँचा तो उसे बात सच्ची मालूम पड़ी। उसने पूछा कि मैं जमीन खरीदना चाहता हूँ। तो उन्होंने कहा, जमीन खरीदने का तुम जितना पैसा लाए हो, रख दो; और जीवन का हमारे पास यही उपाय है बेचने का कि कल सुबह सूरज के ऊगते तुम निकल पड़ना और साँझ सूरज के डूबते तक जितनी जमीन तुम घेर सको घेर लेना।

बस चलते जाना... जितनी जमीन तुम घेर लो। साँझ सूरज के डूबते-डूबते उसी जगह पर लौट आना जहाँ से चले थे- बस यही शर्त है। जितनी जमीन तुम चल लोगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी।

रात-भर तो सो न सका वह आदमी। तुम भी होते तो न सो सकते; ऐसे क्षणों में कोई सोता है? रातभर योजनाएँ बनाता रहा कि कितनी जमीन घेर लूँ। सुबह ही भागा। गाँव इकट्ठा हो गया था। सुबह का सूरज ऊगा, वह भागा। उसने साथ अपनी रोटी भी ले ली थी, पानी का भी इंतजाम कर लिया था। रास्ते में भूख लगे, प्यास लगे तो सोचा था चलते ही चलते खाना भी खा लूँगा, पानी भी पी लूँगा। रुकना नहीं है; चलना क्या है; दौड़ना है। दौड़ना शुरू किया, क्योंकि चलने से तो आधी ही जमीन कर पाऊँगा, दौड़ने से दुगनी हो सकेगी- भागा...भागा...।

सोचा था कि ठीक बारह बजे लौट पड़ूँगा, ताकि सूरज डूबते-डूबते पहुँच जाऊँ। बारह बज गए, मीलों चल चुका है, मगर वासना का कोई अंत है? उसने सोचा कि बारह तो बज गए, लौटना चाहिए; लेकिन सामने और उपजाऊ जमीन, और उपजाऊ जमीन... थोड़ी सी और घेर लूँ। जरा तेजी से दौड़ना पड़ेगा लौटते समय- इतनी ही बात है, एक ही दिन की तो बात है, और जरा तेजी से दौड़ लूँगा।

उसने पानी भी न पीया, क्योंकि रुकना पड़ेगा उतनी देर- एक दिन की ही तो बात है, फिर कल पी लेंगे पानी, फिर जीवन भर पीते रहेंगे। उस दिन उसने खाना भी न खाया। रास्ते में उसने खाना भी फेंक दिया, पानी भी फेंक दिया, क्योंकि उनका वजन भी ढोना पड़ा रहा है, इसलिए दौड़ ठीक से नहीं पा रहा है। उसने अपना कोट भी उतार दिया, अपनी टोपी भी उतार दी, जितना निर्भार हो सकता था हो गया। एक बज गया, लेकिन लौटने का मन नहीं होता, क्योंकि आगे और-और सुंदर भूमि आती चली जाती है। मगर फिर लौटना ही पड़ा; दो बजे तक लो लौटा। अब घबड़ाया। सारी ताकत लगाई; लेकिन ताकत तो चुकने के करीब आ गई थी। सुबह से दौड़ रहा था, हाँफ रहा था, घबरा रहा था कि पहुँच पाऊँगा सूरज डूबते तक कि नहीं। सारी ताकत लगा दी। पागल होकर दौड़ा। सब दाँव पर लगा दिया। और सूरज डूबने लगा...। ज्यादा दूरी भी नहीं रह गई है, लोग दिखाई पड़ने लगे। गाँव के लोग खड़े हैं और आवाज दे रहे हैं कि आ जाओ, आ जाओ! उत्साह दे रहे हैं, भागे आओ! अजीब सीधे-सादे लोग हैं- सोचने लगा मन में; इनको तो सोचना चाहिए कि मैं मर ही जाऊँ, तो इनको धन भी मिल जाए और जमीन भी न जाए। मगर वे बड़ा उत्साह दे रहे हैं कि भागे आओ!

उसने आखिरी दम लगा दी- भागा, भागा...। सूरज डूबने लगा; इधर सूरज डूब रहा है, उधर भाग रहा है...। सूरज डूबते-डूबते बस जाकर गिर पड़ा। कुछ पाँच-सात गज की दूरी रह गई है; घिसटने लगा।

अभी सूरज की आखिरी कोर क्षितिज पर रह गई- घिसटने लगा। और जब उसका हाथ उस जमीन के टुकड़े पर पहुँचा, जहाँ से भागा था, उस खूँटी पर, सूरज डूब गया। वहाँ सूरज डूबा, यहाँ यह आदमी भी मर गया। इतनी मेहनत कर ली! शायद हृदय कर दौरा पड़ गया। और सारे गाँव के सीधे-सादे लोग जिनको वह समझाता था, हँसने लगे और एक-दूसरे से बात करने लगे!

ये पागल आदमी आते ही जाते हैं! इस तरह के पागल लोग आते ही रहते हैं! यह कोई नई घटना न थी, अक्सर लोग आ जाते थे खबरें सुनकर, और इसी तरह मरते थे। यह कोई अपवाद नहीं था, यही नियम था। अब तक ऐसा एक भी आदमी नहीं आया था, जो घेरकर जमीन का मालिक बन पाया हो।

यह कहानी तुम्हारी कहानी है, तुम्हारी जिंदगी की कहानी है, सबकी जिंदगी की कहानी है। यही तो तुम कर रहे हो- दौड़ रहे हो कि कितनी जमीन घेर लें! बारह भी बज जाते हैं, दोपहर भी आ जाती है, लौटने का भी समय होने लगता है- मगर थोड़ा और दौड़ लें! न भूख की फिक्र है, न प्यास की फिक्र है।

जीने का समय कहाँ है? पहले जमीन घेर लें, पहले जितोड़ी भर लें, पहले बैंक में रुपया इकट्ठा हो जाए; फिर जी लेंगे, फिर बाद में जी लेंगे, एक ही दिन का तो मामला है। और कभी कोई नहीं जी पाता। गरीब मर जाते हैं भूखे, अमीर मर जाते हैं भूखे, कभी कोई नहीं जी पाता। जीने के लिए थोड़ी विश्रांति चाहिए। जीने के लिए थोड़ी समझ चाहिए। जीवन मुफ्त नहीं मिलता- बोध चाहिए।

Monday, June 15, 2015

योग टिप्स : शरीर से प्यार करना सीखें

योग टिप्स : शरीर से प्यार करना सीखें

शरीर और मन को यंत्र की तरह चलाते रहने में हम खुद को भी भूले रहते हैं। यंत्रवत जीवन शैली के चलते व्यक्ति सेहत के प्रति तो लापरवाह रहता ही है साथ ही वह खुद (आत्मा) क्या है यह भी भूलकर बेहोशी में ही जीवन गुजार देता है। जो लोग यह समझते हैं कि हम होश में जी रहे हैं उन्हें होश के स्तर का शायद ही पता हो। हम यहां शरीर से प्यार करने का एक छोटा से योगा टिप्स बताना चाहते हैं

कभी कभी आपको लगता होगा कि अरे! कैसे वक्त गुजर गया पता ही ‍नहीं चला। कभी लोगों को गौर से देखना वे किस तरह यंत्रवत काम कर रहे हैं। योग इस यंत्रवत जीवन के खिलाफ है। यम, नियम, योगासन और प्राणायाम से यह यंत्रवत जीवन शैली खत्म हो जाती है और व्यक्ति के होश का स्तर बढ़ जाता है। फिर उसे शरीर और मन की हर हरकत का ध्यान रहता है।

हालांकि योग कहता है कि सेहत पाना है या मोक्ष- सबसे पहले शरीर को ही साधना होगा। इसीलिए योगासन किए जाते हैं। शरीर को साधने के पहले क्या आपने कभी स्वयं के शरीर से प्यार किया है? यह बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है। लोग अपने अपनों से प्यार जरूर करते होंगे लेकिन खुद से प्यार करना भी जरूरी है।

सचमुच ही दुनिया की सबसे बड़ी दौलत तो आपका शरीर ही है और आप मन के पीछे भागते रहते हैं। जरा शरीर की भी तो खैर खबर लें। जब रोग होता है तभी शरीर के होने का पता चलता है, तभी उसकी की याद आती है। लोग शरीर में सिर्फ चेहरे की ही देखरेख करते हैं बाकी अंग तो सभी उपेक्षा के शिकार हैं।

ऐसे करें शरीर से प्यार : कभी शरीर को दर्पण के सामने खड़े होकर निहारें और सचमुच ही उसका सम्मान करें। कभी दाएं हाथ से बाएं हाथ को छूकर प्यार करें, फिर बांएं से दाएं को। इसी तरह पैरों को एक दूसरे से छूकर प्यार करें। दाएं कंधे को बाएं हाथ से और बाएं कंधे को दाएं हाथों की हथेलियों से छूकर दबाएं और सहलाएं। इसी तरह चेहरे को और फिर अन्य अंगों को छूकर उन्हें प्यार करें। यह कारगर स्पर्श योगा है।

शरीर को बाचाएं कष्टों से : शरीर को हर तरह के कष्टों से बचाने का प्रयास करें- जैसे धूल, धुंवा, प्रदूषण, तेज धूप, ठंड, गलत खानपान आदि। खासकर शरीर मन के कष्टों से बहुत प्रभावित होता है। योग में कहा गया है कि क्लेश से दुख उत्पन्न होता है दुख से शरीर रुग्ण होता है। रुग्णता से स्वास्थ्य और सौंदर्य नष्ट होने लगता है।

तो शरीर को प्रतिदिन प्यार करें, दुलार करें और उसे हर तरह के कष्टों से बचाएं। सचमुच दवा से ज्यादा असर इस प्यार में हैं।

इसके अलावा यदि ये नियम पालना चाहें तो....

आहार : पानी का अधिकाधिक सेवन करें, ताजा फलों के जूस, दही की छाछ, आम का पना, इमली का खट्टा-मीठा जलजीरा, बेल का शर्बत आदि तरल पदार्थों को अपने भोजन में शामिल करें। ककड़ी, तरबूज, खरबूजा, खीरा, संतरा, बेल तथा पुदीने का भरपूर सेवन करते हुए मसालेदार या तैलीय भोज्य पदार्थ से बचें।

Saturday, June 6, 2015

विद्यार्थी क्यों अनुशासनहीन हो गए?


विद्यार्थी क्यों अनुशासनहीन हो गए?

शिक्षकों के सम्मेलन होते हैं तो वे विचार करते हैं, विद्यार्थी बड़े अनुशासनहीन हो गए, इनको डिसिप्लिन में कैसे लाया जाए! कृपा करें, इनको पूरा अनुशासनहीन हो जाने दें, क्योंकि आपके डिसिप्लिन का परिणाम क्या हुआ है, पांच हजार साल से-डिसिप्लिन में तो थे, क्या हुआ? और डिसिप्लिन सिखाने का मतलब क्या है? डिसिप्लिन सिखाने का मतलब है कि हम जो कहें उसको ठीक मानो। हम ऊपर बैठें, तुम नीचे बैठो, हम जब निकलें तो दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम करो या और ज्यादा डिसिप्लिन हो तो पैर छुओ और हम जो कहें उस पर शक मत करो, हम जिधर कहें उधर जाओ, हम कहें बैठो तो बैठो, हम कहें उठो तो उठो। यह डिसिप्लिन है? डिसिप्लिन के नाम पर आदमी को मारने की करतूतें हैं, उसके भीतर कोई चैतन्य न रह जाए, उसके भीतर कोई होश न रह जाए, उसके भीतर कोई विवेक और विचार न रह जाए।
मिलिटरी में क्या करते हैं? एक आदमी को तीन-चार साल तक कवायद करवाते हैं-लेफ्ट टर्न, राइट टर्न। कितनी बेवकूफी की बातें हैं कि आदमी से कहो कि बाएं घूमो, दाएं घूमो। घुमाते रहो तीन-चार साल तक, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाएगी। एक आदमी को बाएं-दाएं घुमाओगे, क्या होगा? कितनी देर तक उसकी बुद्धि स्थिर रहेगी। उससे कहो बैठो, उससे कहो खड़े होओ, उससे कहो दौड़ो और जरा इनकार करे तो मारो। तीन-चार वर्ष में उसकी बुद्धि क्षीण हो जाएगी, उसकी मनुष्यता मर जाएगी। फिर उससे कहो, राइट टर्न, तो वह मशीन की तरह घूमता है। फिर उससे कहो, बंदूक चलाओ, तो वह मशीन की तरह बंदूक चलाता है। आदमी को मारो, तो वह आदमी को मारता है। वह मशीन हो गया, वह आदमी नहीं रह गया-यह डिसिप्लिन है? और यह है डिसिप्लिन, हम चाहते हैं कि बच्चों में भी हो। बच्चों में मिलिट्राइजेशन हो...उनको भी एन.सी.सी. सिखाओ, मार डालो दुनिया को, एन.सी.सी. सिखाओ, सैनिक शिक्षा दो, बंदूक पकड़वाओ, लेफ्ट-राइट टर्न करवाओ, मारो दुनिया को। पांच हजार साल में आदमी को...मैं नहीं समझता कि कोई समझ भी आई हो कि चीजों के क्या मतलब है? डिसिप्लिनड आदमी डेड होता है। जितना अनुशासित आदमी होगा उतना मुर्दा होगा।
तो क्या मैं यह कह रहा हूं कि लड़कों को कहो कि विद्रोह करो, भागो, दौड़ो, कूदो क्लास में, पढ़ने मत दो। यह नहीं कह रहा हूं। यह कह रहा हूं कि आप प्रेम करो बच्चों को। बच्चों के हित, भविष्य की मंगलकामना करो। उस प्रेम और मंगलकामना से एक डिसिप्लिन आनी शुरू होती है जो थोपी हुई नहीं है, जो बच्चे के विवेक से पैदा होती है। एक बच्चे को प्रेम करो और देखो कि वह प्रेम उसमें एक अनुशासन लाता है। वह अनुशासन लेफ्ट-राइट टर्न करने वाला अनुशासन नहीं है। वह उसकी आत्मा से जगता है, प्रेम की ध्वनि से जगता है, थोपा नहीं जाता है, उसके भीतर से आता है। उसके विवेक को जगाओ, उसके विचार को जगाओ, उसको बुद्धिहीन मत बनाओ। उससे यह मत कहो कि हम जो कहते हैं वही सत्य है।
सत्य का पता है आपको? लेकिन दंभ कहता है कि मैं जो कहता हूं वही सत्य है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप तीस साल पैदा पहले हो गए, वह तीस साल पीछे हो गया तो आप सत्य के जानकार हो गए और वह सत्य का जानकार नहीं रहा। जितने अज्ञान में आप हो उससे शायद हो सकता है वह कम अज्ञान में हो क्योंकि अभी वह कुछ भी नहीं जानता है, और आप न मालूम कौन-कौन सी नासमझियां, न मालूम क्या-क्या नोनसेंस जानते होंगे, लेकिन आप ज्ञानी हैं क्योंकि आपकी तीस साल उम्र ज्यादा है। क्योंकि आप ज्ञानी हैं, आपके हाथ में डंडा है इसलिए आप उसको डिसिप्लिनड करना चाहते हैं। नहीं, डिसिप्लिनड कोई किसी को नहीं करना चाहिए, न कोई किसी को करे तो दुनिया बेहतर हो सकती है। प्रेम करें, प्रेम आपका हक है। आप प्रेमपूर्ण जीवन जीयें। आप मंगल कामना करें उसकी, सोचें उसके हित के लिए कि क्या हो सकता है, वैसा करें। और वह प्रेम, वह मंगल कामना असंभव है कि उसके भीतर अनुशासन न ला दे, आदर न ला दे!






स्वतंत्र विचार



मनुष्य को स्वतंत्र विचार सिखाया जाए

मनुष्य को स्वतंत्र विचार सिखाया जाए

शिक्षक के माध्यम से मनुष्य के चित्त को परतंत्रताओं की अत्यंत सूक्ष्म जंजीरों में बांधा जाता रहा है। यह सूक्ष्म शोषण बहुत पुराना है। शोषण के अनेक कारण हैं-धर्म हैं, धार्मिक गुरु हैं, राजतंत्र हैं, समाज के न्यस्त स्वार्थ हैं, धनपति हैं, सत्ताधिकारी हैं।
सत्ताधिकारी ने कभी भी नहीं चाहा है कि मनुष्य में विचार हो, क्योंकि जहां विचार है, वहां विद्रोह का बीज है। विचार मूलतः विद्रोह है। क्योंकि विचार अंधा नहीं है, विचार के पास अपनी आंखें हैं। उसे हर कहीं नहीं ले जाया जा सकता। उसे हर कुछ करने और मानने को राजी नहीं किया जा सकता है। उसे अंधानुयायी नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए सत्ताधिकारी विचार के पक्ष में नहीं हैं, वे विश्वास के पक्ष में हैं। क्योंकि विश्वास अंधा है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसका शोषण हो सकता है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसे स्वयं उसके ही अमंगल में संलग्न किया जा सकता है।
मनुष्य का अंधापन उसे सब भांति के शोषण की भूमि बना देता है। इसलिए विश्वास सिखाया जाता है, आस्था सिखाई जाती है, श्रद्धा सिखाई जाती है। धर्मों ने यही किया है। राजनीतिज्ञों ने यही किया है। विचार से सभी भांति के सत्ताधिकारियों को भय है। विचार जाग'त होगा तो न तो वर्ण हो सकते हैं, न वर्ग हो सकते हैं। धन का शोषण भी नहीं हो सकता है। और शोषण को पिछले जन्मों के पाप-पुण्यों के आधार पर भी नहीं समझाया और बचाया जा सकता है।
विचार के साथ आएगी क्रांति-सब तलों पर और सब संबंधों में-राजनीतिज्ञ भी उसमें नहीं बचेंगे और राष्ट्रों की सीमाएं भी नहीं बचेंगी। मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने वाली कोई दीवाल नहीं बच सकती है। इससे विचार से भय है, पूंजीवादी राजनीतिज्ञों को भी, साम्यवादी राजनीतिज्ञों को भी। और इस भय से सुरक्षा के लिए शिक्षा के ढांचे की ईजाद हुई है। यह तथाकथित शिक्षा सैकड़ों वर्षों से चल रहे एक बड़े षडयंत्र का हिस्सा है। धर्म पुरोहित पहले इस पर हावी थे, अब राज्य हावी है।
विचार के अभाव में व्यक्ति निर्मित ही नहीं हो पाता है। क्योंकि व्यक्तित्व की मूल आधारशिला ही उसमें अनुपस्थित होती है। व्यक्तित्व की मूल आधारशिला क्या है? क्या विचार की स्वतंत्र क्षमता ही नहीं? लेकिन स्वतंत्र विचार की तो जन्म के पूर्व ही हत्या कर दी जाती है। गीता सिखाई जाती है, कुरान और बाइबिल सिखाए जाते हैं, कैपिटल और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो सिखाए जाते हैं-उनके आधार पर, उनके ढांचे में विचार करना भी सिखाया जाता है! ऐसे विचार से ज्यादा मिथ्या और क्या हो सकता है? ऐसे अंधी पुनरुक्ति सिखाई जाती है और उसे ही विचार करना कहा जाता है!

ईशावास्य उपनिषद- एक महावाक्य

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते
पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
शान्तिः शान्तिः शान्तिः
Om Puurnnam-Adah Puurnnam-Idam Puurnnaat-Purnnam-Udacyate
Puurnnashya Puurnnam-Aadaaya Puurnnam-Eva-Avashissyate ||
Om Shaantih Shaantih Shaantih ||


Meaning:
1: Om, That is Full, This also is Full, From Fullness comes that Fullness,
2: Taking Fullness from Fullness, Fullness Indeed Remains.
3: Om Peace, Peace, Peace.
 
Om Shaantih Shaantih Shaantih
 यह महावाक्य कई अर्थों में अनूठा है। एक तो इस अर्थ में कि ईशावास्य उपनिषद इस महावाक्य पर शुरू भी होता है और पूरा भी। जो भी कहा जाने वाला है, जो भी कहा जा सकता है, वह इस सूत्र में पूरा आ गया है। जो समझ सकते हैं, उनके लिए ईशावास्य आगे पढ़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। जो नहीं समझ सकते हैं, शेष पुस्तक उनके लिए ही कही गई है। इसीलिए साधारणतः ॐ शांतिः शांतिः शांतिः का पाठ, जो कि पुस्तक के अंत में होता है, इस पहले वचन के ही अंत में है। जो जानते हैं, उनके हिसाब से बात पूरी हो गई है। जो नहीं जानते हैं, उनके लिए सिर्फ शुरू होती है। इसलिए भी यह महावाक्य बहुत अदभुत है कि पूरब और पश्चिम के सोचने के ढंग का भेद इस महावाक्य से स्पष्ट होता है। दो तरह के तर्क, दो तरह की लाजिक सिस्टम्स विकसित हुई हैं दुनिया में--एक यूनान में, एक भारत में। यूनान में जो तर्क की पद्धति विकसित हुई उससे पश्चिम के सारे विज्ञान का जन्म हुआ और भारत में जो विचार की पद्धति विकसित हुई उससे धर्म का जन्म हुआ। दोनों में कुछ बुनियादी भेद हैं। और सबसे पहला भेद यह है कि पश्चिम में, यूनान ने जो तर्क की पद्धति विकसित की, उसकी समझ है कि निष्कर्ष, कनक्लूजन हमेशा अंत में मिलता है। साधारणतः ठीक मालूम होगी बात। हम खोजेंगे सत्य को, खोज पहले होगी, विधि पहले होगी, प्रक्रिया पहले होगी, निष्कर्ष तो अंत में हाथ आएगा। इसलिए यूनानी चिंतन पहले सोचेगा, खोजेगा, अंत में निष्कर्ष देगा। भारत ठीक उलटा सोचता है। भारत कहता है, जिसे हम खोजने जा रहे हैं, वह सदा से मौजूद है। वह हमारी खोज के बाद में प्रगट नहीं होता, हमारे खोज के पहले भी मौजूद है। जिस सत्य का उदघाटन होगा वह सत्य, हम नहीं थे, तब भी था। हमने जब नहीं खोजा था, तब भी था। हम जब नहीं जानते थे, तब भी उतना ही था, जितना जब हम जान लेंगे, तब होगा। खोज से सत्य सिर्फ हमारे अनुभव में प्रगट होता है। सत्य निर्मित नहीं होता। सत्य हमसे पहले मौजूद है। इसलिए भारतीय तर्कणा पहले निष्कर्ष को बोल देती है फिर प्रक्रिया की बात करती है--दि कनक्लूजन फर्स्ट, देन दि मैथडलाजी एंड दि प्रोसेस। पहले निष्कर्ष, फिर प्रक्रिया। यूनान में पहले प्रक्रिया, फिर खोज, फिर निष्कर्ष। —ओशो

नृत्य में डूबो और उत्सव मनाओ

नृत्य में डूबो और उत्सव मनाओ
निश्चित ही यही धर्म है। और अगर तुम नृत्य में डूब सकते, गीत नहीं गा सकते, उत्सव नहीं मना सकते-तो और क्या करोगे?
पहली तो बातः तुम अपनी फिकर के लिए यहां आए हो कि सबकी फिकर के लिए? तुमने कोई ठेका लिया है सारे लोगों की फिकर का? तुम कौन हो उनकी चिंता करने वाले? पहले तुम तो पा लो!

और तुम यह नहीं पूछते कि शास्त्रीय संगीत सबके लिए है या नहीं! और तुम यह नही पूछते कि शेक्सपीयर के नाटक, और कालिदास के शास्त्र, और भवभूति की रचनाएं, और रवींद्रनाथ के गीत सबके लिए हैं या नही! तब तुम यह नहीं कहते कि कोई सस्ते कालिदास क्यों पैदा नहीं किये जाते? जो सर्वसुलभ हों! धर्म के लिए ही क्यों यह आग्रह है तुम्हारा?

धर्म को लोगों ने समझ रखा है-दो कौड़ी की चीज होनी चाहिए! सस्ती होनी चाहिए! सर्वसुलभ होनी चाहिए! और धर्म इस जीवन में सबसे कीमती चीज है; सबसे बहुमूल्य। यह तो जीवन का परम शिखर है। यहां कालिदास, भवभूति, रवींद्रनाथ, शेक्सपीयर और मिल्टन जैसे लोगों की भी पहुंच मुश्किल से हो पाती है। यहा आइंस्टीन और न्यूटन और एडिंग्टन जैसे वैज्ञानिकों तक की पहुंच नहीं हो पाती। सर्व साधारण की तो बात ही तुम छोड़ दो। यहां तो कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण, कोई जीसस-अंगुली पर इने-गिने लोग पहुंच पाए। मैं क्या करूं! नियम यह हैः एस धम्मो सनंतनो! 

धर्म तो परम शिखर है। इसके लिए तो प्रतिभा चाहिए। इसके लिए तो बड़ी प्रखर प्रतिभा चाहिए, क्योंकि यह जीवन के आखिरी तत्व को खोज लेना है।

तुम्हारा प्रश्न सोचने जैसा है। और पहले प्रश्न के संदर्भ में इसको लेना, तो आसान हो जाएगा समझना।

कहते होः ‘आप कहते हैं कि नृत्य में डूबो, उत्सव मनाओ, गीत गाओ-यही धर्म है।’

निश्चित ही यही धर्म है। और अगर तुम नृत्य में डूब सकते, गीत नहीं गा सकते, उत्सव नहीं मना सकते-तो और क्या करोगे?

तुम कहते होः ‘इसकी फुर्सत कहां है।’

और चिलम पीने की फुर्सत है! और ताश खेलने की फुर्सत है! और अभी बरसात में चौपड़ बिछा कर बैठने की फुर्सत है! और आल्हा-ऊदल गाने की फुर्सत है! किन गंवारों की बात कर रहे हो यहां? ये ही गंवार गांवों में बैठ कर हनुमान-चालीसा पढ़ रहे हैं! और हनुमान जी की पूजा करने की फुर्सत है! और गीत गाने की फुर्सत  नहीं!  और नाचने की फुर्सत नहीं! और उपद्रव करने की फुर्सत है! हिंदू-मुस्लिम दंगा करना हो, तो बिल्कुल फुर्सत है! और बलात्कार करना हो, तो फुर्सत है! हरिजनों के झोपड़े जलाने हों, तो फुर्सत है! और चुनाव लड़ना हो, तो फुर्सत है!

जो मर गए हैं बिल्कुल, वे भी वोट देने पहुंच जाते हैं लोगों के कंधों पर  बैठ कर! अंधे, लंगड़े, लूले, इनको चुनाव में रस है! और अगर इनसे कहो-उत्सव-तो चिन्तामणि पाठक को बड़ी चिंता पैदा हो रही है!

तुम कहते होः ‘फुर्सत कहां है लोगों को। निर्धनता का अभिशाप झेल रहे हैं।’

कौन जिम्मेवार है? अगर झेल रहे हैं, तो खुद जिम्मेवार हैं। और तुम जैसे लोग जिम्मेवार हैं, जो उनकी निर्धनता का किसी तरह का सुरक्षा का उपाय खोज रहे हो। क्यों झेल रहे हैं निर्धनता का अभिशाप?

पांच हजार साल से क्या भाड़ झोंकते रहे! अमरीका तीन सौ साल में समृद्ध हो गया। कुल तीन सौ साल का इतिहास है। और दुनिया के शिखर पर पहुंच गया! तुम क्या कर रहे हो? तुम्हें लेकिन फुर्सत है रामचरितमानस पढ़ने की!. हर साल रामलीला खेलने की। वही गांव के गुंडे राम बन जाएंगे-और उनके पैर छूने की! और गांव का कोई मूर्ख सीता बन जाएगा, और तुम जानते हो कि कौन है यह! मूंछें मुड़ाए खड़ा हुआ है! और सीतामैया-सीतामैया कर रहे हो! तुम्हें फुर्सत है कि समय कैसे काटें! हर तरह से समय बरबाद करने की फुर्सत है! मगर आलसी हैं; बेईमान हैं।

और तुम्हारे महात्माओं ने तुम्हें बेईमानी और आलसीपन सिखाया है। वे तुम्हें सिखा गए, कि क्या करना है! अरे, सबका देखने वाला भगवान है! जब उसकी मर्जी होगी, छप्पर फाड़ कर देता है! अभी तक किसी को छप्पर फाड़ कर दिया, देखा नहीं। और देगा भी, तो सम्हल कर बैठना; खोपड़ी न खुल जाए! छप्पर ही न गिर जाए कहीं!

तुम कहते होः ‘फुर्सत नहीं है।’

और कर क्या रहे हैं गांव के लोग चौबीस घंटे? और हर तरह के दंगे-फसाद की फुर्सत है। सत्यनारायण की कथा में बैठने की फुर्सत है! डंडे चलाना हो, तो एकदम तैयार हैं! नागपंचमी में दंगल करना हो, तो दंगल के लिए तैयार हैं! सांप की पूजा करनी हो, तो ये तैयार है!

एक दूसरे सज्जन ने पूछा है कि मेरा विश्वास सनातन धर्म में है। बजरंगबली महावीर में मेरी अटूट श्रद्धा है। आपकी बातें मुझे दिलचस्प तो लगती हैं, लेकिन हमारे सनातन  धर्म से  उनका मेल नहीं बैठता। क्या आप बताने की कृपा करेंगे कि मुझमें क्या कमी है?

नाम हैः खिलिन्दा राम चौधरी। प्रधान, महावीर सेवा दल, पानीपत।

इस सबकी फुर्सत है! ये खिलिन्दा राम को तरह-तरह के खेल करने की फुर्सत है! महावीर सेवा दल के प्रधान हैं, इसकी इनको फुर्सत है! और बजरंगबली की सेवा करने की फुर्सत है!

और तुम्हें

कोई भी चीज सही कही जाए, तो तुम्हारे सनातन धर्म का सौभाग्य! न खाए, तुम जानो। कोई मैंने ठेका नहीं लिया है, तुम्हारे धर्म से मेल बिठालने का। मैं किस-किस के धर्म से मेल बिठाऊं! यहां तीन सौ धर्मों को मानने वाले लोग पृथ्वी पर हैं। अगर इन सबका ही मेल बिठाता रहूं, तो मेरा ही तालमेल खो जाए!

किस-किस का मेल बिठालना है! यहां तरह-तरह के मूढ़ पड़े हुए हैं। और सबकी अपनी धारणांए हैं! अब तुम्हारी अटूट श्रद्धा बजरंगबली में है! तुम आदमी हो या क्या हो! और कमी पूछ रहे हो! बजरंगबली से ही पूछ लेना। वे खुद ही हंसते होंगे, कि यह देखो मूर्ख! खिलिन्दा राम! राम होकर और बजरंगबली की सेवा कर रहे हैं!

आजकल बजरंगबली तक राम की सेवा नहीं कर रहे हैं। क्योंकि उनको दूसरी रामलीला में ज्यादा पैसे पर नौकरी मिल गई!

इस तरह से लोगों से यह देश भरा हुआ है। जमाने भर की जड़ता को तुम सनातन धर्म कहते हो! हर तरह के अंधविश्वास को तुम सनातन धर्म कहते हो! और तुम्हें जब कोई अनुभव नहीं है, तुम्हें अटूट श्रद्धा कैसे हो गई? और अटूट श्रद्धा थी, तो यहां किसलिए आए हो? तुड़वाने आए हो श्रद्धा! बजरंगबली तो वहीं उपलब्ध है पानीपत में। खुद पानी पीओ, उनको पिलाओ। यहां किसलिए आए हो! श्रद्धा तुड़वानी है?

और दिलचस्पी मत लो मेरी बातों में। खतरनाक हैं ये बातें। इसमें बजरंगबली से साथ छूट जाएगा। यह अटूट श्रद्धा वगैरह कुछ नहीं है। अटूट होती ही तब है, जब होती नहीं।

तुम कहते हो कि ‘मेरा विश्वास सनातन धर्म में है।’

कैसे तुम्हारा विश्वास है? किस आधार पर तुम्हारा विश्वास है? संयोग की बात है कि तुम हिंदू घर में पैदा हो गए। तुमको बचपन में उठा कर मुसलमान के घर में रख देते, तो तुम्हारी अटूट श्रद्धा इस्लाम में होती। हिंदुओं के गले काटते। तब तुम यह महावीर सेवा दल वालों की जान ले लेते। तब तुम कुछ और दल बनाते। रजाकार! तब तुम दूसरा झंडा खड़ा करते कि इस्लाम खतरे में है! और मेरा विश्वास इस्लाम में है! और तुम ईसाई घर में पैदा हो जाते, तो तुम यही उपद्रव वहां करते।

तुम्हारा विश्वास है कैसे? किसी आधार पर तुम्हारा विश्वास है? सिर्फ यही न कि तुम्हारे मां-बाप ने तुम्हें यह सिखा दिया कि हनुमान जी हैं, ये पत्थर की मूर्ति नहीं हैं। इनकी सेवा करो। इन्हें नाराज मत करना। हनुमान-चालीसा पढ़ो। यह बेटा, बहुत फल देंगे। ये बड़े भोले-भाले हैं। इनको मना लेना बड़ा आसान है। जो चाहोगे, ये कर देंगे!

इसी सब पागलपन के पीछे तो यह देश गरीब है। यह सारा श्रम अगर देश को समृद्ध बनाने में बनाने में लगे, तो इस देश के पास बड़ी समृद्ध पृथ्वी है। और हमारे पास पांच हजार साल का अनुभव होना चाहिए था। हमें तो दुनिया में शिखर पर होना था। मगर एक तरफ अंधविश्वास और  दूसरी तरफ तुम्हारे महात्मागण, जो कह रहे हैं, जो कह रहे हैं-सब त्यागो, सब छोड़ो; भौतिकता छोड़ो! तो गरीब न रहोगे, तो क्या होगा!

और फिर गरीब रहो, तो यहां इस तरह के प्रश्न खड़े करते हो, जैसे मेरा कोई जिम्मा है। मेरा काई जिम्मा नहीं है। तुम्हारी गरीबी के लिए तुम जिम्मेवार हो। और अभी भी तुम्हारी गरीबी टूट सकती है। मगर जो आदमी तुम्हारी गरीबी तुड़वाने के लिए कोशिश करेगा, तुम उसकी जान लोगे। तुम्हें अपनी गरीबी से मोह हो गया है!

आखिर मेरा विरोध क्या है! मेरा विरोध यह है कि मैं कह रहा हूं कि भारत को भौतिकता के ऊपर  अपनी जड़ें जमानी चाहिए, क्योंकि जिस देश की जड़ें भौतिकता में हों, उसी देश के शिखर पर अध्यात्म के फूल खिल सकते हैं। यह मेरे विरोध का कारण है।
-ओशो

ज्योति अंश है परमात्मा का

ज्योति अंश है परमात्मा का
अंधेरा कितना ही हो नीलम, और कितना ही पुराना हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। जो दीया हम ला रहे हैं, जो रोशनी हम जला रहे हैं, वह इस अंधेरे को तोड़ देगी; तोड़ ही देगी। बस रोशनी जलने की बात है। इसलिए अंधेरे की चिंता न लो। रोशनी के लिए ईंधन बनो...
अंधेरा कितना ही हो, चिंता न करो। अंधेरे का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। अंधेरा कम और ज्यादा थोड़े ही होता है; पुराना-नया थोड़े ही होता है। हजार साल पुराना अंधेरा भी, अभी दीया जलाओ और मिट जाएगा। और घड़ी भर पुराना अंधेरा भी, अभी दीया जलाओ और मिट जाएगा। और अंधेरा अमावस की रात का हो तो मिट जाएगा। और अंधेरा साधारण हो तो मिट जाएगा। अंधेरे का कोई बल नहीं होता। अंधेरा दिखाई बहुत पड़ता है, मगर बहुत निर्बल है, बहुत नपुंसक है। ज्योति बड़ी छोटी होती है, लेकिन बड़ी शक्तिशाली है। क्योंकि ज्योति परमात्मा का अंश है; ज्योति में परमात्मा छिपा है। अंधेरा तो सिर्फ नकार है, अभाव है। अंधेरा है नहीं।

इसीलिए तो अंधेरे के साथ तुम सीधा कुछ करना चाहो तो नहीं कर सकते। न तो अंधेरा ला सकते हो, न हटा सकते हो। दीया जला लो, अंधेरा चला गया। दीया बुझा दो, अंधेरा आ गया। सच तो यह है कहना कि अंधेरा आ गया, चला गया-ठीक नहीं; भाषा की भूल है। अंधेरा न तो है, न आ सकता, न जा सकता। जब रोशनी नहीं होती तो उसके अभाव का नाम अंधेरा है। जब रोशनी होती है तो उसके भाव का नाम अंधेरे का न होना है।

अंधेरा कितना ही हो नीलम, और कितना ही पुराना हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। जो दीया हम ला रहे हैं, जो रोशनी हम जला रहे हैं, वह इस अंधेरे को तोड़ देगी; तोड़ ही देगी। बस रोशनी जलने की बात है। इसलिए अंधेरे की चिंता न लो। रोशनी के लिए ईंधन बनो।

इस प्रकाश के लिए तुम्हारा स्नेह चाहिए। स्नेह के दो अर्थ होते  हैं: एक तो प्रेम और एक तेल। दोनों अर्थों में तुम्हारा स्नेह चाहिए-प्रेम के अर्थों में और तेल के अर्थो में-ताकि यह मशाल जले।

अंधेरे की बिलकुल चिंता न लो। अंधेरे का क्या भय! सारी चिंता, सारी जीवन-उर्जा प्रकाश के बनाने में नियोजित कर देनी है। और प्रकाश तुम्हारे भीतर है, कहीं बाहर से लाना नहीं है। सिर्फ छिपा पड़ा है, उघाड़ना है। सिर्फ दबा पड़ा है, थोड़ा कूड़ा-कर्कट हटाना है। मिट्टी में हीरा खो गया है, जरा तलाशना है।

और तूने कहाः ‘प्रकाश के दुश्मन भी बहुत हैं!’

सदा से हैं। कोई नयी बात नहीं। मगर क्या कर पाए प्रकाश के दुश्मन? प्रकाश के दुश्मन खुद दुख पाते हैं-और क्या कर पाते हैं!

जिन्होंने सुकरात को जहर दिया, तुम सोचते हो सुकरात को दुखी कर पाए? नहीं, असंभव! खुद ही दुखी हुए, खुद ही पश्चाताप से भरे, खुद ही पीडि़त हुए। सुकारात को सूली की सजा देने के बाद न्यायाधीश सोचते थे कि सुकरात क्षमा मांग लेगा। क्षमा मांग लेगा तो हम क्षमा कर देंगे। क्योंकि यह आदमी तो प्यारा था; चाहे कितना ही बगावती हो, इस आदमी की गरिमा तो थी। असल में सुकरात जिस दिन बुझ जाएगा, उस दिन एथेंस का दीया भी बुझ जाएगा-यह भी उन्हें पता था।

सुकरात की मौत के बाद एथेंस फिर कभी ऊंचाइयां नहीं पा सका। आज क्या है एथेंस की हैसियत? आज एथेंस की कोई हैसियत नहीं है। इन ढाई हजार सालों में सुकरात के बाद एथेंस ने फिर कभी गौरव नहीं पाया; कभी फिर स्वर्ण नही चढ़ा एथेंस पर। और सुकरात के समय में एथेंस विश्व की बुद्धिमत्ता की राजधानी थी। विश्व की श्रेष्ठतम प्रतिभा का प्रागट्य वहां हुआ था। एथेंस साधारण नगर नहीं था, जब सुकरात जिंदा था। सुकरात की ज्योति से ज्योतिर्मय था, जगमग था।

जानते तो वे लोग भी थे जो सुकरात को सजा दे रहे थे। अपने स्वार्थो के कारण सजा दे रहे थे। मरना चाहते भी नहीं थे; सिर्फ सुकरात सत्य बोलना बंद कर दे, इतने चाहते थे। सोचा था उन्होंने, अपेक्षा रखी थी, कि मौत सामने देख कर सुकरात क्षमा मांग लेगा। लेकिन सुकरात ने तो क्षमा मांगी नहीं। तो बड़े हैरान हुए। तो उन्होंने खुद ही कहा कि हम दो शर्ते और रखते हैं। एक-कि अगर तुम एथेंस छोड़ कर चले जाओ तो जहर देने से हम अपने को रोक लेंगे। हम तुम्हें नहीं मारेंगे। फिर एथेंस लौट कर मत आना। अगर यह तुम न कर सको...।

सुकरात ने कहा, यह मैं न कर सकूंगा। क्योंकि एथेंस के इस बगीचे को मैंने लगाया। यहां मैंने सैकड़ों लोगों के प्राणों में प्राण फूकें हैं। यहां मैंने न मालूम कितने लोगों की बंद आखों को खोला है। एथेंस को छोड़ कर मैं न जा सकूंगा। अब इस बुढ़ापे में फिर से काम शुरू न कर सकूंगा। मौत तो आती ही होगी, तो यहीं आ जाए। एथेंस में जीया, एथेंस में जागा, एथेंस में ही मरुंगा-अपने प्रियजनों के बीच। अब किसी परदेश में अब फिर जाकर क ख ग से शुरू करूं, यह मुझसे न हो सकेगा। और आखिर में यह वहां होना है जो यहां हो रहा है। जब एथेंस जैसे सुसंकृत नगर में ऐसा हो रहा है तो एथेंस को छोड़ कर कहां जाऊं? जहां जाऊंगा, वहां तो और जल्दी हो जाएगा। यहां कम से कम यह तो भाग्य रहेगा कि सुसंस्कृत, सभ्य, समझदार लोगों के द्वारा मारा गया था! कम से कम यह तो सौभाग्य रहेगा! जंगली  लोगों के हाथों से मारे जाने से यह बेहतर है। एथेंस मैं नहीं छोडूंगा, तुम जहर दे दो।

उन्होंने कहा, दूसरी शर्त यह है कि तुम एथेंस में रहो, कोई फिक्र नहीं, मत छोड़ो; मगर सत्य बोलना बंद कर दो।

सुकरात हंसा। उसने कहा, यह तो और भी असंभव है। यह तो ऐसे है, जैसे कोई पक्षियों से कहे गीत न गाओ, कि कोई फूलों से कहे सुगंध न उड़ाओ, कि कोई झरनों से कहे कि नाद न करो। यह तो ऐसे है जैसे कोई सूरज से कहे रोशनी मत दो। यह नहीं हो सकता। मैं हूं तो सत्य बोला जाएगा। मैं जो बोलूंगा वही सत्य होगा। अगर मैं चुप भी रहा तो मेरी चुप्पी भी सत्य का ही उद्घोष  करेगी। नही, यह नहीं हो सकेगा। यह तो मेरा धंधा है। ठीक ‘धंधे’ शब्द का प्रयोग किया है सुकरात ने। व्यंग्य में किया होगा। मरते वक्त भी इस तरह के लोग हंस सकते हैं। सुकरात ने कहा, यह तो मेरा धंधा है, मेरा प्रोफेशन। सत्य बोलना मेरा धंधा है। यह तो मेरी दुकान। यह तो मैं जब तक जी रहा हूं, जब तक श्वास आती-जाती रहेगी, तब तक मैं बोलता ही रहूंगा।

सुकरात को फांसी जहर पिला कर देनी ही पड़ी। मगर पछताए बहुत लोग, क्योंकि उसके बाद एथेंस की गरिमा मिट गई। उसके बाद रोज-रोज एथेंस का पतन होता चला गया।

जीसस को सूली लगी। जिस आदमी ने, जुदास ने, जीसस को दुश्मनों के हाथ में बेचा था, तुम्हें मालूम है उसने खुद भी दूसरे दिन सूली लगी! यह कहानी बहुत कम लोगों को पता है, क्योंकि ईसाई यह कहानी कहते नहीं। यह कहानी चाहिए, इसके बिना जीसस की कहानी अधूरी है। जीसस को तो सूली लगाई गई, जुदास ने दूसरे दिन अपने हाथ से जाकर झाड़ से लटक कर सूली लगा ली। इतना पछताया। क्योंकि जीसस के जाते ही उसे दिखाई पड़ाः जेरुसलम अंधेरा हो गया। जेरुसलम का उत्सव खो गया। जेरुसलम पर एक उदासी छा गई। एक रात उतर आई, जो फिर टूटी नहीं, जो अभी भी नहीं टूटी! जब  तक कोई दूसरा जीसस पैदा न हो, जेरुसलम की रात टूट भी नहीं सकती। दो हजार साल बीत गए, रात का अंत है, प्रभात का कोई पता नहीं है।

प्रकाश के दुश्मन है जरूर, मगर प्रकाश के दुश्मन क्या कर पाते हैं? पीछे पछताते हैं। और प्रकाश के दुश्मन भला एक प्रकाशित दीये को बुझा देते हों, लेकिन उस प्रकाशित दीये की ज्योति को, जो तिरोहित हो जाती है आकाश में, सदा के लिए शाश्वत भी कर देते हैं।
-ओशो

क्यों है मन में ऊबाऊपन

क्यों है मन में ऊबाऊपन
संसार में जितनी चीजें हैं, उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। पाने की चेष्टा में कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। इंतजार जिंदगीभर चल सकता है; मिलन घड़ीभर चलाना मुश्किल पड़ जाता है...
संसार के संयोग से जो तोड़ दे, दुख के संयोग से जो पृथक कर दे, अज्ञान से जो दूर हटा दे, ऐसे योग को अथक रूप से साधना कर्तव्य है, ऐसा कृष्ण कहते हैं। अथक रूप से! बिना थके, बिना ऊबे।

इस बात को ठीक से समझ लें।

मनुष्य का मन ऊबने में बड़ी जल्दी करता है। शायद मनुष्य के बुनियादी गुणों में ऊब जाना एक गुण है। ऐसे भी पशुओं में कोई पशु ऊबता नहीं। बोर्डम, ऊब, मनुष्य का लक्षण है। कोई पशु ऊबता नहीं। आपने किसी भैंस को, किसी कुत्ते को, किसी गधे को ऊबता नहीं देखा होगा, कि बोर्ड हो गया है! नहीं; कभी ऊब पैदा नहीं होती। अगर हम आदमी और जानवरों को अलग करने वाले गुणों की खोज करें, तो शायद ऊब एक बुनियादी गुण है, जो आदमी को अलग करता है।

आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है, बड़ी जल्दी बोर्ड हो जाता है। किसी भी चीज से ऊब जाता है। बड़ी जल्दी बोर्ड हो जाता है। किसी भी चीज से ऊब जाता है। अगर सुख ही सुख मिलता जाए, तो तबियत होती है कि थोड़ा दुख कहीं से जुटाओ। और आदमी जुटा लेता है! अगर सुख ही सुख मिले, तो तिक्त मालूम पड़ने लगता है; मुंह में स्वाद नहीं आता फिर। फिर थोड़ी-सी कड़वी नीम मुंह  पर रखनी अच्छी होती है। थोड़ा-सा स्वाद आ जाता है।

आदमी ऊबता है, सभी  चीजों से ऊबता है। बड़े से बड़े महल में जाए, उनसे ऊब जाता है। सुंदर से सुंदर स्त्री मिले, सुंदर से सुंदर पुरूष मिले, उससे ऊब जाता है। धन मिले, अपार धन मिले, उससे ऊब जाता है। यश मिले, कीर्ति मिले, उससे ऊब जाता है। जो चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है; मिलते ही ऊब जाता है।

इस बात को ऐसा समझें, संसार में जितनी चीजें हैं, उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। पाने की चेष्टा में कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। इंतजार जिंदगीभर चल सकता है; मिलन घड़ीभर चलाना  मुश्किल  पड़ जाता है।

संसार की प्रत्येक वस्तु को पाने के लिए तो हम नहीं ऊबते, लेकिन पाकर ऊब जाते हैं। और परमात्मा की तरह ठीक उलटा नियम लागू होता है। संसार कर तरफ प्रयत्न करने में आदमी नहीं ऊबता, प्राप्ति में ऊबता है। परमात्मा की तरह प्राप्ति में कभी नहीं ऊबता, लेकिन प्रयत्न में बहुत ऊबता है। ठीक उलटा नियम लागू होगा भी।

जैसे कि हम झील के किनारे खड़े हों, तो झील में हमारी तस्वीर बनती है, वह उलटी बनेगी। जैसे आप खड़े हैं, आपका सिर ऊपर होंगे। तस्वीर झील में उलटी बनेगी।

संसार के किनारे हमारी तस्वीर उलटी बनती है। संसार में जो हमारा प्रोजेक्शन होता है, वह उलटा बनता है। इसलिए संसार में गति करने के जो नियम हैं, परमात्मा में गति करने के वे नियम बिलकुल नहीं हैं। ठीक उनसे उलटे नियम काम  आते हैं। मगर यहीं बड़ी मुश्किल हो जाती है।

संसार में तो ऊबना आता है बाद में, प्रयत्न में तो ऊब नहीं आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में ही ऊब आती है। और प्राप्ति तो आएगी बाद में, और प्रयत्न पहले ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे।

कितने लोग नहीं हैं। जो प्रभु की यात्रा शुरू करते हैं! शुरू भर करते हैं, कभी पूरी नहीं कर पाते। कितनी बार आपने तय किया कि रोज प्रार्थना कर लेंगे! फिर कितनी बार छूट गया वह। कितनी बार तय किया कि स्मरण कर लेंगे प्रभु का घड़ीभर! एकाध दिन, दो दिन, काफी! फिर ऊब गए। फिर छूट गया। कितने संकल्प, कितने निर्णय, धूल होकर पड़े हैं आपके चारों तरफ!

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान से कुछ हो सकेगा? मैं उनको कहता हूं कि जरूर हो सकेगा। लेकिन कर सकोगे? वे कहते हैं, बहुत कठिन तो नहीं है? मैं कहता हूं, बहुत कठिन जरा भी नहीं। कठिनाई सिर्फ एक है, सातत्य! ध्यान तो बहुत सरल है। लेकिन रोज कर सकोगे? कितने दिन कर सकोगे? तीन महीने, लोगों को कहता हूं कि सिर्फ तीन महीने सतत कर लो। मुश्किल से कभी कोई मिलता है, जो तीन महीने भी सतत कर पाता है। ऊब जाता है, दस-पांच दिन बाद ऊब जाता है!

बड़े आश्चर्य की बात है कि रोज अखबार पढ़कर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज रेडियो सुनकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज फिल्म देखकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज वे ही बातें करके नहीं ऊबता, जिंदगीभर। ध्यान करके क्यों ऊब जाता है? आखिर ध्यान में ऐसी क्या कठिनाई है!

कठिनाई एक ही है कि संसार की यात्रा पर प्रयत्न नहीं उबाता, प्राप्ति उबाती है। और परमात्मा की यात्रा पर प्रयत्न उबाता है, प्राप्ति कभी नहीं उबाती। जो पा लेता है, वह तो फिर कभी नहीं ऊबता।

इसलिए बुद्ध को मिला ज्ञान, उसके बाद वे चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल किसी आदमी ने एक बार उन्हें अपने ज्ञान से ऊबते हुए नहीं देखा। कोहनूर हीरा मिल जाता चालीस साल, तो ऊब जाते। संसार का राज्य मिल जाता, तो ऊब जाते।

महावीर भी चालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, फिर किसी आदमी ने कभी उनके चेहरे पर ऊब की शिकन नहीं देखी। चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल निरंतर उसी ज्ञान में रमे रहे, कभी ऊबे नहीं! कभी चाहा नहीं कि अब कुछ और मिल जाए!

नहीं; परमात्मा की यात्रा पर प्राप्ति के बाद कोई ऊब नहीं है। लेकिन प्राप्ति तक पहुंचने के रास्ते पर अथक...।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, बिना ऊबे श्रम करना कर्तव्य है, करने योग्य है।

यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि कृष्ण कहते हैं, करने योग्य है। अर्जुन कैसे माने और क्यों माने? अर्जुन को तो नहीं है। अर्जुन तो जब प्रयास करेगा, तो ऊबेगा, थकेगा। कृष्ण कहते हैं।

इसलिए धर्म में ट्रस्ट का, भरोसे का एक कीमती मूल्य है। श्रद्धा का अर्थ होता है, ट्रस्ट। उसका अर्थ होता है, ट्रस्ट। उसका अर्थ होता है, कोई कह रहा है, अगर उसके व्यक्तित्व से वे किरणें दिखाई पड़ती हैं, जो वह कह रहा है, उसका प्रमाण देती है; वह जो कह रहा है, जिस प्राप्ति की बात, वहां खड़ा हुआ मालूम पड़ता है...।

अर्जुन भलीभांति कृष्ण को जानता है। कृष्ण को भी विचलित नहीं देखा है। कृष्ण को उदास नहीं देखा है। कृष्ण की बांसुरी से कभी दुख का स्वर निकलते नहीं देखा है। कृष्ण सदा ताजे हैं।

इसीलिए तो लोग ऐसा सोचते हैं, उन्हें इस मुल्क के चिंतन के ढंग का पता नहीं है। यह मुल्क तस्वीरें शरीरों की नहीं बनाता, मनोभावों की बनाता है। कृष्ण कभी भी बूढ़े नहीं होते, कभी बासे नहीं होते; सदा ताजे हैं। बूढ़े तो होते ही हैं,शरीर तो बूढ़ा होता ही है। शरीर तो  जराजीर्ण होगा, मिटेगा। शरीर तो अपने नियम से चलेगा। पर कृष्ण की चेतना अविचलित भाव से आनंदमग्न बनी रहती है, युवा बनी रहती है। वह कृष्ण की चेतना सदा नाचती ही रहती है।

कृष्ण की हमने इतनी तस्वीरें देखी हैं। कई दफे शक होने लगता है कि कृष्ण ऐसा एक पैर पर पैर रखे और बांसुरी पकड़े कितनी देर खड़े रहते होंगे! यह ज्यादा दिन नहीं चल सकता। यह कभी-कभी तस्वीर उतरवाने को, फोटोग्राफर आ गया हो, बात अलग है। बाकी ऐसे ही कृष्ण खड़े रहते हैं?

नहीं, ऐसे ही नहीं खड़े रहते हैं। लेकिन यह आंतरिक बिंब है, यह भीतर तस्वीर है। यह खबर देती है कि भीतर एक नाचती हुई, प्रफुल्ल चेतना है, एक नृत्य करती हुई चेतना है, जो सदा नाच रही है। भीतर  गीत गाता मन है, जो सदा बांसुरी पर स्वर भरे हुए है।

यह बांसुरी सदा ऐसी होंठ पर रखे बैठे रहते होंगे, ऐसा नहीं है। यह बांसुरी तो सिर्फ खबर देती है भीतर की। ये तो प्रतीक हैं, सिंबलिक हैं। ये गोंपियों चारों वक्त, चारों पहर चौबीस घंटे आस-पास नाचती रहती होंगी, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि कृष्ण इसी गोरखधंधे मे लगे रहे। नहीं; से प्रतीक हैं, बहुत आंतरिक प्रतीक हैं। असल में इस मुल्क की मिथ, इस मुल्क के मिथिक, इस मुल्क के पुराण प्रतीकात्मक हैं। गोपियों से मतलब वस्तुतः स्त्रियों से नहीं है। स्त्रियां भी कभी कृष्ण के आस-पास नाची होंगी। कोई भी इतना प्यारा पुरूष पैदा हो जाए, स्त्रियां न नाचे, ऐसा मौका चूकना संभव नहीं है। स्त्रियां नाची होंगी। लेकिन यह प्रतीक कुछ और है। यह प्रतीक गहरा है।

यह प्रतीक यह कह रहा है कि जैसे किसी पुरूष के आस-पास चारों तरफ सुंदर, प्रेम से भरी हुई, प्रेम करने वाली स्त्रियां नाचती रहें और वह जैसा प्रफुल्लित रहे, वैसे कृष्ण सदा हैं। वह उनका सदा होना है। वह उनका ढंग है होने का। जैसे चारों तरफ सौंदर्य नाचता हो, चारों तरफ गीत चलते हों, चारों तरफ संगीत हो, और घूंघर बजते हों, ऐसे कृष्ण चौबीस घंटे ऐसी हालत में जीते हैं। ऐसा चारों तरफ उनके हो रहा हो, ऐसे वे भीतर होते हैं।
-ओशो

Meditation

भोग और दमन के पार

 भोग और दमन के पार

 यह सच है: रात अंधेरी है और रास्ते उलझे हुए हैं। लेकिन दूसरी बात भी सच है: जमीन कितनी ही अंधेरी हो, कितनी ही अंधी हो, अगर आकाश की तरफ आंखें उठाओ, तो तारे सदा मौजूद हैं। आदमी के हाथ में चाहे रोशनी न हो, लेकिन आकाश में सदा रोशनी है। आंख ऊपर उठानी चाहिए। तो ऐसा कभी नहीं हुआ, ऐसा कभी होता नहीं है, ऐसी जगत की व्यवस्था नहीं है। परमात्मा कितना ही छिपा हो, लेकिन इशारे भेजता है। और परमात्मा कितना ही दिखाई न पड़ता हो, फिर भी जो देखना ही चाहते हैं, उन्हें निश्र्चित दिखाई पड़ता है। जिन्होंने खोजने का तय ही कर लिया है, वे खोज ही लेते हैं। जो एक बार समग्र श्रद्धा और संकल्प और समर्पण से यात्रा शुरू करता है--भटकता नहीं। रास्ता मिल ही जाता है। ऐसे रास्तों के उतरने का नाम ही संतपुरुष है, सदगुरु है। एक परम सदगुरु के साथ अब हम कुछ दिन यात्रा करेंगे--कबीर के साथ। बड़ा सीधा-साफ रास्ता है कबीर का। बहुत कम लोगों का रास्ता इतना सीधा-साफ है। टेढ़ी-मेंढ़ी बात कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते का नाम है: सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। वस्तुतः इतना सहज है कि भोलाभाला बच्चा ही चल सकता है। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञानी न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा, तो चल पाएगा। यह कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। वहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: ‘मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ।’ कागज-कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है। ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात’--कहा है कबीर ने। देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है। कबीर के वचन अनूठे हैं; जूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है। संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं। सभी संत अदभुत हैं; मगर कबीर अदभुतों में भी अदभुत हैं; बेजोड़ हैं। कबीर की सबसे बड़ी अद्वितीयता तो यही है कि जरा भी उधार नहीं है। अपने ही स्वानुभव से कहा है। इसलिए रास्ता सीधा-साफ है, सुथरा है। और चूंकि कबीर पंडित नहीं हैं, इसलिए सिद्धांतों में उलझने का कोई उपाय भी नहीं था। —ओशो


तुम जितने अधिक सजग होते हो, उतना ही क्रोध कम होगा, लोभ कम होगा और ईर्ष्या कम होगी|
मैं तुम्हें यह नहीं कहता : क्रोध मत करो, क्योंकि यही तुम्हें सदियों से कहा जाता रहा है| तुम्हारे तथाकथित महात्मा तुम्हें यही कहते रहे हैं--क्रोध मत करो| इसलिए तुमने क्रोध के दमन का मार्ग सीख लिया है| लेकिन तुम क्रोध का जितना अधिक दमन करते हो उतना ही अधिक स्वयं के अचेतन में तुम उसका निर्माण कर रहे हो| तुम चीजों को तहखाने में फेंक रहे हो, और तब तुम्हें तहखाने में प्रवेश करने से भय लगेगा, क्योंकि वहां क्रोध और लालच और काम जैसी सारी चीजें हैं| तुम जानते हो, तुम्हीं ने उन्हें वहां फेंका है| सब तरह की गंदगी वहां पर है, खतरनाक और जहरीली | तुम भीतर प्रवेश के लिए तैयार नहीं
होओगे|

यही कारण है कि लोग भीतर प्रवेश नहीं करना चाहते, क्योंकि भीतर जाने का मतलब है कि उन सारी चीजों का सामना करना| और कोई भी व्यक्ति उन चीजों का सामना नहीं करना चाहता; प्रत्येक उनसे बचना चाहता है| हज़ारों सालों से तुम्हें दमन करना सिखाया गया है, और दमन के कारण ही तुम बहुत अधिक अचेतन हुए हो| मैं तुम्हें दमन के लिए नहीं कह सकता| मैं तुम्हें इसके विपरीत कहना चाहूंगा: दमन मत करो, साक्षी बनो, सजग बनो|
जब क्रोध उठे, अपने कमरे में बैठ जाओ, दरवाजा बंद कर लो, और उसको देखो|
तुम केवल दो ही मार्ग जानते हो: पहला या तो क्रोधित होना, हिंसक होना, विनाशकारी होना या दूसरा इनका दमन करना| तुम्हें तीसरे मार्ग का पता ही नहीं, और तीसरा मार्ग है--बुद्ध का मार्ग: न तो उसमें लिप्त होना, न ही दमन करना--साक्षी होना|
भोग से आदत बनती है| अगर तुम आज क्रोधित होते हो और फिर कल भी और कल के बाद फिर भी, तब तुम एक आदत का निर्माण कर रहे हो| तुम स्वयं को और अधिक क्रोधी होने के लिए प्रतिबंधित कर रहे हो| इसलिए भोग तुम्हें इससे बाहर नहीं ला सकता|
यह वह जगह है जहां आधुनिक विकास आंदोलन अटक जाता है| इनकाउंटर ग्रुप, पुनर्जन्म चिकित्सा, बायोइनरजेटिक्स... और भी बहुत अच्छी चीजें जगत में हो रही हैं, पर वे एक निश्चित जगह पर आकर अटक जाती हैं| उनकी समस्या यह है: वे व्यक्त करना सिखाते हैं, और यह अच्छा है, यह दमन से बेहतर है|
अगर केवल इन्हीं में से किसी एक का चुनाव करना हो: व्यक्त करना या दमन करना, तब मैं व्यक्त करने को चुनने की सलाह दूंगा| पर यह कोई सही चुनाव नहीं है: एक तीसरा विकल्प भी है, इन दोनों से अधिक महत्वपूर्ण--
अगर तुम व्यक्त करते है, तब तुम उसके आदी बनते हो; तुम इसे बार-बार करने से सीखते हो, तब तुम इससे बाहर नहीं आ सकते|
इस कम्यून में लगभग पचास उपचार ग्रुप चल रहे हैं, एक निश्चित कारण से| हज़ारों सालों के दमन को बराबर करने के लिए; यह केवल बराबर करने के लिए ही है| यह केवल उसे प्रकाश में लाने के लिए है जो तुमने दबा रखा है, ईसाई बनकर, हिंदू होकर मुस्लिम होकर, जैन होकर, बौद्ध होकर। सदियों से तुम्हें जो नुकसान पहुंचाया गया है, उसे ठीक करने के लिए|
पर याद रखो, ये ग्रुप अंत नहीं हैं; ये केवल तुम्हें ध्यान के लिए तैयार करते हैं| ये लक्ष्य नहीं हैं; ये केवल अतीत में की गई गलतियों को सुधारने के उपाय हैं|
एक बार तुम वह सब, जो तुमने बहुत समय से अपने भीतर दबा रखा है, उसे बाहर फेंक दो तो फिर मुझे तुम्हें साक्षीभाव की ओर ले जाना है| तब साक्षी होना आसान होगा|
भोगते रहने से आदत बनती है, दमन से अंदर विष इकट्ठा होता है, उसमें संलग्न रहने से वह विष तुम दूसरों पर फेंकते हो, तब वे भी शांत नहीं रहते –वे भी इसे वापस फेंकते हैं| तब यह एक खेल हो जाता है: तुम अपना क्रोध किसी के ऊपर फेंको, वह अपना क्रोध तुम्हारे ऊपर फेंके, पर इससे किसी की मदद नहीं होती, सबको हानि और चोट पहुंचती है|
और अगर तुम दमन करते हो... केवल भोगने की निरर्थकता के कारण, दमन की खोज पुजारियों ने की है| यह तुम्हें खतरे से मुक्त रखता है| दमन तुम्हें एक अच्छा नागरिक बनाता है, एक सज्जन पुरुष| यह तुम्हें कानून द्वारा पकड़े जाने से बचाता है, शत्रुता होने से बचाता है, यह तुम्हें आसान बनाता है| दमन तुम्हें एक अच्छा सामाजिक इंसान बनाता है, यह सच है| पर वह तुम्हारे अंदर घाव बनाता है, केवल घाव और फिर उन घावों में मवाद इकट्ठा होता जाता है| बाहर की दुनिया में तो यह चिकनाई का काम करता है, पर भीतर ही भीतर तुम अधिक से अधिक विक्षिप्त होते जाते हो|
ध्यान करो, ध्यान का मतलब है साक्षीभाव और तब तुम स्वतंत्रता और आनंद को पा सकोगे ।


OSHO


 


कहै कबीर मैं पूरा पाया

टेढ़ी-मेंढ़ी बात कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते का नाम है: सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। वस्तुतः इतना सहज है कि भोलाभाला बच्चा ही चल सकता है। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञानी न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा, तो चल पाएगा। यह कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। वहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: ‘मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ।’ कागज-कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है। ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात’--कहा है कबीर ने। देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है। कबीर के वचन अनूठे हैं; जूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है। संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं।

यह सच है: रात अंधेरी है और रास्ते उलझे हुए हैं। लेकिन दूसरी बात भी सच है: जमीन कितनी ही अंधेरी हो, कितनी ही अंधी हो, अगर आकाश की तरफ आंखें उठाओ, तो तारे सदा मौजूद हैं। आदमी के हाथ में चाहे रोशनी न हो, लेकिन आकाश में सदा रोशनी है। आंख ऊपर उठानी चाहिए। तो ऐसा कभी नहीं हुआ, ऐसा कभी होता नहीं है, ऐसी जगत की व्यवस्था नहीं है। परमात्मा कितना ही छिपा हो, लेकिन इशारे भेजता है। और परमात्मा कितना ही दिखाई न पड़ता हो, फिर भी जो देखना ही चाहते हैं, उन्हें निश्र्चित दिखाई पड़ता है। जिन्होंने खोजने का तय ही कर लिया है, वे खोज ही लेते हैं। जो एक बार समग्र श्रद्धा और संकल्प और समर्पण से यात्रा शुरू करता है--भटकता नहीं। रास्ता मिल ही जाता है। ऐसे रास्तों के उतरने का नाम ही संतपुरुष है, सदगुरु है। एक परम सदगुरु के साथ अब हम कुछ दिन यात्रा करेंगे--कबीर के साथ। बड़ा सीधा-साफ रास्ता है कबीर का। बहुत कम लोगों का रास्ता इतना सीधा-साफ है। टेढ़ी-मेंढ़ी बात कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते का नाम है: सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। वस्तुतः इतना सहज है कि भोलाभाला बच्चा ही चल सकता है। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञानी न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा, तो चल पाएगा। यह कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। वहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: ‘मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ।’ कागज-कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है। ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात’--कहा है कबीर ने। देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है। कबीर के वचन अनूठे हैं; जूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है। संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं। सभी संत अदभुत हैं; मगर कबीर अदभुतों में भी अदभुत हैं; बेजोड़ हैं। कबीर की सबसे बड़ी अद्वितीयता तो यही है कि जरा भी उधार नहीं है। अपने ही स्वानुभव से कहा है। इसलिए रास्ता सीधा-साफ है, सुथरा है। और चूंकि कबीर पंडित नहीं हैं, इसलिए सिद्धांतों में उलझने का कोई उपाय भी नहीं था। —ओशो