Saturday, June 6, 2015

भोग और दमन के पार

 भोग और दमन के पार

 यह सच है: रात अंधेरी है और रास्ते उलझे हुए हैं। लेकिन दूसरी बात भी सच है: जमीन कितनी ही अंधेरी हो, कितनी ही अंधी हो, अगर आकाश की तरफ आंखें उठाओ, तो तारे सदा मौजूद हैं। आदमी के हाथ में चाहे रोशनी न हो, लेकिन आकाश में सदा रोशनी है। आंख ऊपर उठानी चाहिए। तो ऐसा कभी नहीं हुआ, ऐसा कभी होता नहीं है, ऐसी जगत की व्यवस्था नहीं है। परमात्मा कितना ही छिपा हो, लेकिन इशारे भेजता है। और परमात्मा कितना ही दिखाई न पड़ता हो, फिर भी जो देखना ही चाहते हैं, उन्हें निश्र्चित दिखाई पड़ता है। जिन्होंने खोजने का तय ही कर लिया है, वे खोज ही लेते हैं। जो एक बार समग्र श्रद्धा और संकल्प और समर्पण से यात्रा शुरू करता है--भटकता नहीं। रास्ता मिल ही जाता है। ऐसे रास्तों के उतरने का नाम ही संतपुरुष है, सदगुरु है। एक परम सदगुरु के साथ अब हम कुछ दिन यात्रा करेंगे--कबीर के साथ। बड़ा सीधा-साफ रास्ता है कबीर का। बहुत कम लोगों का रास्ता इतना सीधा-साफ है। टेढ़ी-मेंढ़ी बात कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते का नाम है: सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। वस्तुतः इतना सहज है कि भोलाभाला बच्चा ही चल सकता है। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञानी न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा, तो चल पाएगा। यह कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। वहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: ‘मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ।’ कागज-कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है। ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात’--कहा है कबीर ने। देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है। कबीर के वचन अनूठे हैं; जूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है। संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं। सभी संत अदभुत हैं; मगर कबीर अदभुतों में भी अदभुत हैं; बेजोड़ हैं। कबीर की सबसे बड़ी अद्वितीयता तो यही है कि जरा भी उधार नहीं है। अपने ही स्वानुभव से कहा है। इसलिए रास्ता सीधा-साफ है, सुथरा है। और चूंकि कबीर पंडित नहीं हैं, इसलिए सिद्धांतों में उलझने का कोई उपाय भी नहीं था। —ओशो


तुम जितने अधिक सजग होते हो, उतना ही क्रोध कम होगा, लोभ कम होगा और ईर्ष्या कम होगी|
मैं तुम्हें यह नहीं कहता : क्रोध मत करो, क्योंकि यही तुम्हें सदियों से कहा जाता रहा है| तुम्हारे तथाकथित महात्मा तुम्हें यही कहते रहे हैं--क्रोध मत करो| इसलिए तुमने क्रोध के दमन का मार्ग सीख लिया है| लेकिन तुम क्रोध का जितना अधिक दमन करते हो उतना ही अधिक स्वयं के अचेतन में तुम उसका निर्माण कर रहे हो| तुम चीजों को तहखाने में फेंक रहे हो, और तब तुम्हें तहखाने में प्रवेश करने से भय लगेगा, क्योंकि वहां क्रोध और लालच और काम जैसी सारी चीजें हैं| तुम जानते हो, तुम्हीं ने उन्हें वहां फेंका है| सब तरह की गंदगी वहां पर है, खतरनाक और जहरीली | तुम भीतर प्रवेश के लिए तैयार नहीं
होओगे|

यही कारण है कि लोग भीतर प्रवेश नहीं करना चाहते, क्योंकि भीतर जाने का मतलब है कि उन सारी चीजों का सामना करना| और कोई भी व्यक्ति उन चीजों का सामना नहीं करना चाहता; प्रत्येक उनसे बचना चाहता है| हज़ारों सालों से तुम्हें दमन करना सिखाया गया है, और दमन के कारण ही तुम बहुत अधिक अचेतन हुए हो| मैं तुम्हें दमन के लिए नहीं कह सकता| मैं तुम्हें इसके विपरीत कहना चाहूंगा: दमन मत करो, साक्षी बनो, सजग बनो|
जब क्रोध उठे, अपने कमरे में बैठ जाओ, दरवाजा बंद कर लो, और उसको देखो|
तुम केवल दो ही मार्ग जानते हो: पहला या तो क्रोधित होना, हिंसक होना, विनाशकारी होना या दूसरा इनका दमन करना| तुम्हें तीसरे मार्ग का पता ही नहीं, और तीसरा मार्ग है--बुद्ध का मार्ग: न तो उसमें लिप्त होना, न ही दमन करना--साक्षी होना|
भोग से आदत बनती है| अगर तुम आज क्रोधित होते हो और फिर कल भी और कल के बाद फिर भी, तब तुम एक आदत का निर्माण कर रहे हो| तुम स्वयं को और अधिक क्रोधी होने के लिए प्रतिबंधित कर रहे हो| इसलिए भोग तुम्हें इससे बाहर नहीं ला सकता|
यह वह जगह है जहां आधुनिक विकास आंदोलन अटक जाता है| इनकाउंटर ग्रुप, पुनर्जन्म चिकित्सा, बायोइनरजेटिक्स... और भी बहुत अच्छी चीजें जगत में हो रही हैं, पर वे एक निश्चित जगह पर आकर अटक जाती हैं| उनकी समस्या यह है: वे व्यक्त करना सिखाते हैं, और यह अच्छा है, यह दमन से बेहतर है|
अगर केवल इन्हीं में से किसी एक का चुनाव करना हो: व्यक्त करना या दमन करना, तब मैं व्यक्त करने को चुनने की सलाह दूंगा| पर यह कोई सही चुनाव नहीं है: एक तीसरा विकल्प भी है, इन दोनों से अधिक महत्वपूर्ण--
अगर तुम व्यक्त करते है, तब तुम उसके आदी बनते हो; तुम इसे बार-बार करने से सीखते हो, तब तुम इससे बाहर नहीं आ सकते|
इस कम्यून में लगभग पचास उपचार ग्रुप चल रहे हैं, एक निश्चित कारण से| हज़ारों सालों के दमन को बराबर करने के लिए; यह केवल बराबर करने के लिए ही है| यह केवल उसे प्रकाश में लाने के लिए है जो तुमने दबा रखा है, ईसाई बनकर, हिंदू होकर मुस्लिम होकर, जैन होकर, बौद्ध होकर। सदियों से तुम्हें जो नुकसान पहुंचाया गया है, उसे ठीक करने के लिए|
पर याद रखो, ये ग्रुप अंत नहीं हैं; ये केवल तुम्हें ध्यान के लिए तैयार करते हैं| ये लक्ष्य नहीं हैं; ये केवल अतीत में की गई गलतियों को सुधारने के उपाय हैं|
एक बार तुम वह सब, जो तुमने बहुत समय से अपने भीतर दबा रखा है, उसे बाहर फेंक दो तो फिर मुझे तुम्हें साक्षीभाव की ओर ले जाना है| तब साक्षी होना आसान होगा|
भोगते रहने से आदत बनती है, दमन से अंदर विष इकट्ठा होता है, उसमें संलग्न रहने से वह विष तुम दूसरों पर फेंकते हो, तब वे भी शांत नहीं रहते –वे भी इसे वापस फेंकते हैं| तब यह एक खेल हो जाता है: तुम अपना क्रोध किसी के ऊपर फेंको, वह अपना क्रोध तुम्हारे ऊपर फेंके, पर इससे किसी की मदद नहीं होती, सबको हानि और चोट पहुंचती है|
और अगर तुम दमन करते हो... केवल भोगने की निरर्थकता के कारण, दमन की खोज पुजारियों ने की है| यह तुम्हें खतरे से मुक्त रखता है| दमन तुम्हें एक अच्छा नागरिक बनाता है, एक सज्जन पुरुष| यह तुम्हें कानून द्वारा पकड़े जाने से बचाता है, शत्रुता होने से बचाता है, यह तुम्हें आसान बनाता है| दमन तुम्हें एक अच्छा सामाजिक इंसान बनाता है, यह सच है| पर वह तुम्हारे अंदर घाव बनाता है, केवल घाव और फिर उन घावों में मवाद इकट्ठा होता जाता है| बाहर की दुनिया में तो यह चिकनाई का काम करता है, पर भीतर ही भीतर तुम अधिक से अधिक विक्षिप्त होते जाते हो|
ध्यान करो, ध्यान का मतलब है साक्षीभाव और तब तुम स्वतंत्रता और आनंद को पा सकोगे ।


OSHO


 


कहै कबीर मैं पूरा पाया

टेढ़ी-मेंढ़ी बात कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते का नाम है: सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। वस्तुतः इतना सहज है कि भोलाभाला बच्चा ही चल सकता है। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञानी न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा, तो चल पाएगा। यह कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। वहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: ‘मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ।’ कागज-कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है। ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात’--कहा है कबीर ने। देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है। कबीर के वचन अनूठे हैं; जूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है। संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं।

यह सच है: रात अंधेरी है और रास्ते उलझे हुए हैं। लेकिन दूसरी बात भी सच है: जमीन कितनी ही अंधेरी हो, कितनी ही अंधी हो, अगर आकाश की तरफ आंखें उठाओ, तो तारे सदा मौजूद हैं। आदमी के हाथ में चाहे रोशनी न हो, लेकिन आकाश में सदा रोशनी है। आंख ऊपर उठानी चाहिए। तो ऐसा कभी नहीं हुआ, ऐसा कभी होता नहीं है, ऐसी जगत की व्यवस्था नहीं है। परमात्मा कितना ही छिपा हो, लेकिन इशारे भेजता है। और परमात्मा कितना ही दिखाई न पड़ता हो, फिर भी जो देखना ही चाहते हैं, उन्हें निश्र्चित दिखाई पड़ता है। जिन्होंने खोजने का तय ही कर लिया है, वे खोज ही लेते हैं। जो एक बार समग्र श्रद्धा और संकल्प और समर्पण से यात्रा शुरू करता है--भटकता नहीं। रास्ता मिल ही जाता है। ऐसे रास्तों के उतरने का नाम ही संतपुरुष है, सदगुरु है। एक परम सदगुरु के साथ अब हम कुछ दिन यात्रा करेंगे--कबीर के साथ। बड़ा सीधा-साफ रास्ता है कबीर का। बहुत कम लोगों का रास्ता इतना सीधा-साफ है। टेढ़ी-मेंढ़ी बात कबीर को पसंद नहीं। इसलिए उनके रास्ते का नाम है: सहज योग। इतना सरल है कि भोलाभाला बच्चा भी चल जाए। वस्तुतः इतना सहज है कि भोलाभाला बच्चा ही चल सकता है। पंडित न चल पाएगा। तथाकथित ज्ञानी न चल पाएगा। निर्दोष चित्त होगा, कोरा कागज होगा, तो चल पाएगा। यह कबीर के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है। वहां पांडित्य का कोई अर्थ नहीं है। कबीर खुद भी पंडित नहीं हैं। कहा है कबीर ने: ‘मसि कागद छूयौ नहीं, कलम नहीं गही हाथ।’ कागज-कलम से उनकी कोई पहचान नहीं है। ‘लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात’--कहा है कबीर ने। देखा है, वही कहा है। जो चखा है, वही कहा है। उधार नहीं है। कबीर के वचन अनूठे हैं; जूठे जरा भी नहीं। और कबीर जैसा जगमगाता तारा मुश्किल से मिलता है। संतों में कबीर के मुकाबले कोई और नहीं। सभी संत प्यारे और सुंदर हैं। सभी संत अदभुत हैं; मगर कबीर अदभुतों में भी अदभुत हैं; बेजोड़ हैं। कबीर की सबसे बड़ी अद्वितीयता तो यही है कि जरा भी उधार नहीं है। अपने ही स्वानुभव से कहा है। इसलिए रास्ता सीधा-साफ है, सुथरा है। और चूंकि कबीर पंडित नहीं हैं, इसलिए सिद्धांतों में उलझने का कोई उपाय भी नहीं था। —ओशो

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