Saturday, June 6, 2015

ज्योति अंश है परमात्मा का

ज्योति अंश है परमात्मा का
अंधेरा कितना ही हो नीलम, और कितना ही पुराना हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। जो दीया हम ला रहे हैं, जो रोशनी हम जला रहे हैं, वह इस अंधेरे को तोड़ देगी; तोड़ ही देगी। बस रोशनी जलने की बात है। इसलिए अंधेरे की चिंता न लो। रोशनी के लिए ईंधन बनो...
अंधेरा कितना ही हो, चिंता न करो। अंधेरे का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। अंधेरा कम और ज्यादा थोड़े ही होता है; पुराना-नया थोड़े ही होता है। हजार साल पुराना अंधेरा भी, अभी दीया जलाओ और मिट जाएगा। और घड़ी भर पुराना अंधेरा भी, अभी दीया जलाओ और मिट जाएगा। और अंधेरा अमावस की रात का हो तो मिट जाएगा। और अंधेरा साधारण हो तो मिट जाएगा। अंधेरे का कोई बल नहीं होता। अंधेरा दिखाई बहुत पड़ता है, मगर बहुत निर्बल है, बहुत नपुंसक है। ज्योति बड़ी छोटी होती है, लेकिन बड़ी शक्तिशाली है। क्योंकि ज्योति परमात्मा का अंश है; ज्योति में परमात्मा छिपा है। अंधेरा तो सिर्फ नकार है, अभाव है। अंधेरा है नहीं।

इसीलिए तो अंधेरे के साथ तुम सीधा कुछ करना चाहो तो नहीं कर सकते। न तो अंधेरा ला सकते हो, न हटा सकते हो। दीया जला लो, अंधेरा चला गया। दीया बुझा दो, अंधेरा आ गया। सच तो यह है कहना कि अंधेरा आ गया, चला गया-ठीक नहीं; भाषा की भूल है। अंधेरा न तो है, न आ सकता, न जा सकता। जब रोशनी नहीं होती तो उसके अभाव का नाम अंधेरा है। जब रोशनी होती है तो उसके भाव का नाम अंधेरे का न होना है।

अंधेरा कितना ही हो नीलम, और कितना ही पुराना हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। जो दीया हम ला रहे हैं, जो रोशनी हम जला रहे हैं, वह इस अंधेरे को तोड़ देगी; तोड़ ही देगी। बस रोशनी जलने की बात है। इसलिए अंधेरे की चिंता न लो। रोशनी के लिए ईंधन बनो।

इस प्रकाश के लिए तुम्हारा स्नेह चाहिए। स्नेह के दो अर्थ होते  हैं: एक तो प्रेम और एक तेल। दोनों अर्थों में तुम्हारा स्नेह चाहिए-प्रेम के अर्थों में और तेल के अर्थो में-ताकि यह मशाल जले।

अंधेरे की बिलकुल चिंता न लो। अंधेरे का क्या भय! सारी चिंता, सारी जीवन-उर्जा प्रकाश के बनाने में नियोजित कर देनी है। और प्रकाश तुम्हारे भीतर है, कहीं बाहर से लाना नहीं है। सिर्फ छिपा पड़ा है, उघाड़ना है। सिर्फ दबा पड़ा है, थोड़ा कूड़ा-कर्कट हटाना है। मिट्टी में हीरा खो गया है, जरा तलाशना है।

और तूने कहाः ‘प्रकाश के दुश्मन भी बहुत हैं!’

सदा से हैं। कोई नयी बात नहीं। मगर क्या कर पाए प्रकाश के दुश्मन? प्रकाश के दुश्मन खुद दुख पाते हैं-और क्या कर पाते हैं!

जिन्होंने सुकरात को जहर दिया, तुम सोचते हो सुकरात को दुखी कर पाए? नहीं, असंभव! खुद ही दुखी हुए, खुद ही पश्चाताप से भरे, खुद ही पीडि़त हुए। सुकारात को सूली की सजा देने के बाद न्यायाधीश सोचते थे कि सुकरात क्षमा मांग लेगा। क्षमा मांग लेगा तो हम क्षमा कर देंगे। क्योंकि यह आदमी तो प्यारा था; चाहे कितना ही बगावती हो, इस आदमी की गरिमा तो थी। असल में सुकरात जिस दिन बुझ जाएगा, उस दिन एथेंस का दीया भी बुझ जाएगा-यह भी उन्हें पता था।

सुकरात की मौत के बाद एथेंस फिर कभी ऊंचाइयां नहीं पा सका। आज क्या है एथेंस की हैसियत? आज एथेंस की कोई हैसियत नहीं है। इन ढाई हजार सालों में सुकरात के बाद एथेंस ने फिर कभी गौरव नहीं पाया; कभी फिर स्वर्ण नही चढ़ा एथेंस पर। और सुकरात के समय में एथेंस विश्व की बुद्धिमत्ता की राजधानी थी। विश्व की श्रेष्ठतम प्रतिभा का प्रागट्य वहां हुआ था। एथेंस साधारण नगर नहीं था, जब सुकरात जिंदा था। सुकरात की ज्योति से ज्योतिर्मय था, जगमग था।

जानते तो वे लोग भी थे जो सुकरात को सजा दे रहे थे। अपने स्वार्थो के कारण सजा दे रहे थे। मरना चाहते भी नहीं थे; सिर्फ सुकरात सत्य बोलना बंद कर दे, इतने चाहते थे। सोचा था उन्होंने, अपेक्षा रखी थी, कि मौत सामने देख कर सुकरात क्षमा मांग लेगा। लेकिन सुकरात ने तो क्षमा मांगी नहीं। तो बड़े हैरान हुए। तो उन्होंने खुद ही कहा कि हम दो शर्ते और रखते हैं। एक-कि अगर तुम एथेंस छोड़ कर चले जाओ तो जहर देने से हम अपने को रोक लेंगे। हम तुम्हें नहीं मारेंगे। फिर एथेंस लौट कर मत आना। अगर यह तुम न कर सको...।

सुकरात ने कहा, यह मैं न कर सकूंगा। क्योंकि एथेंस के इस बगीचे को मैंने लगाया। यहां मैंने सैकड़ों लोगों के प्राणों में प्राण फूकें हैं। यहां मैंने न मालूम कितने लोगों की बंद आखों को खोला है। एथेंस को छोड़ कर मैं न जा सकूंगा। अब इस बुढ़ापे में फिर से काम शुरू न कर सकूंगा। मौत तो आती ही होगी, तो यहीं आ जाए। एथेंस में जीया, एथेंस में जागा, एथेंस में ही मरुंगा-अपने प्रियजनों के बीच। अब किसी परदेश में अब फिर जाकर क ख ग से शुरू करूं, यह मुझसे न हो सकेगा। और आखिर में यह वहां होना है जो यहां हो रहा है। जब एथेंस जैसे सुसंकृत नगर में ऐसा हो रहा है तो एथेंस को छोड़ कर कहां जाऊं? जहां जाऊंगा, वहां तो और जल्दी हो जाएगा। यहां कम से कम यह तो भाग्य रहेगा कि सुसंस्कृत, सभ्य, समझदार लोगों के द्वारा मारा गया था! कम से कम यह तो सौभाग्य रहेगा! जंगली  लोगों के हाथों से मारे जाने से यह बेहतर है। एथेंस मैं नहीं छोडूंगा, तुम जहर दे दो।

उन्होंने कहा, दूसरी शर्त यह है कि तुम एथेंस में रहो, कोई फिक्र नहीं, मत छोड़ो; मगर सत्य बोलना बंद कर दो।

सुकरात हंसा। उसने कहा, यह तो और भी असंभव है। यह तो ऐसे है, जैसे कोई पक्षियों से कहे गीत न गाओ, कि कोई फूलों से कहे सुगंध न उड़ाओ, कि कोई झरनों से कहे कि नाद न करो। यह तो ऐसे है जैसे कोई सूरज से कहे रोशनी मत दो। यह नहीं हो सकता। मैं हूं तो सत्य बोला जाएगा। मैं जो बोलूंगा वही सत्य होगा। अगर मैं चुप भी रहा तो मेरी चुप्पी भी सत्य का ही उद्घोष  करेगी। नही, यह नहीं हो सकेगा। यह तो मेरा धंधा है। ठीक ‘धंधे’ शब्द का प्रयोग किया है सुकरात ने। व्यंग्य में किया होगा। मरते वक्त भी इस तरह के लोग हंस सकते हैं। सुकरात ने कहा, यह तो मेरा धंधा है, मेरा प्रोफेशन। सत्य बोलना मेरा धंधा है। यह तो मेरी दुकान। यह तो मैं जब तक जी रहा हूं, जब तक श्वास आती-जाती रहेगी, तब तक मैं बोलता ही रहूंगा।

सुकरात को फांसी जहर पिला कर देनी ही पड़ी। मगर पछताए बहुत लोग, क्योंकि उसके बाद एथेंस की गरिमा मिट गई। उसके बाद रोज-रोज एथेंस का पतन होता चला गया।

जीसस को सूली लगी। जिस आदमी ने, जुदास ने, जीसस को दुश्मनों के हाथ में बेचा था, तुम्हें मालूम है उसने खुद भी दूसरे दिन सूली लगी! यह कहानी बहुत कम लोगों को पता है, क्योंकि ईसाई यह कहानी कहते नहीं। यह कहानी चाहिए, इसके बिना जीसस की कहानी अधूरी है। जीसस को तो सूली लगाई गई, जुदास ने दूसरे दिन अपने हाथ से जाकर झाड़ से लटक कर सूली लगा ली। इतना पछताया। क्योंकि जीसस के जाते ही उसे दिखाई पड़ाः जेरुसलम अंधेरा हो गया। जेरुसलम का उत्सव खो गया। जेरुसलम पर एक उदासी छा गई। एक रात उतर आई, जो फिर टूटी नहीं, जो अभी भी नहीं टूटी! जब  तक कोई दूसरा जीसस पैदा न हो, जेरुसलम की रात टूट भी नहीं सकती। दो हजार साल बीत गए, रात का अंत है, प्रभात का कोई पता नहीं है।

प्रकाश के दुश्मन है जरूर, मगर प्रकाश के दुश्मन क्या कर पाते हैं? पीछे पछताते हैं। और प्रकाश के दुश्मन भला एक प्रकाशित दीये को बुझा देते हों, लेकिन उस प्रकाशित दीये की ज्योति को, जो तिरोहित हो जाती है आकाश में, सदा के लिए शाश्वत भी कर देते हैं।
-ओशो

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