Saturday, June 6, 2015

क्यों है मन में ऊबाऊपन

क्यों है मन में ऊबाऊपन
संसार में जितनी चीजें हैं, उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। पाने की चेष्टा में कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। इंतजार जिंदगीभर चल सकता है; मिलन घड़ीभर चलाना मुश्किल पड़ जाता है...
संसार के संयोग से जो तोड़ दे, दुख के संयोग से जो पृथक कर दे, अज्ञान से जो दूर हटा दे, ऐसे योग को अथक रूप से साधना कर्तव्य है, ऐसा कृष्ण कहते हैं। अथक रूप से! बिना थके, बिना ऊबे।

इस बात को ठीक से समझ लें।

मनुष्य का मन ऊबने में बड़ी जल्दी करता है। शायद मनुष्य के बुनियादी गुणों में ऊब जाना एक गुण है। ऐसे भी पशुओं में कोई पशु ऊबता नहीं। बोर्डम, ऊब, मनुष्य का लक्षण है। कोई पशु ऊबता नहीं। आपने किसी भैंस को, किसी कुत्ते को, किसी गधे को ऊबता नहीं देखा होगा, कि बोर्ड हो गया है! नहीं; कभी ऊब पैदा नहीं होती। अगर हम आदमी और जानवरों को अलग करने वाले गुणों की खोज करें, तो शायद ऊब एक बुनियादी गुण है, जो आदमी को अलग करता है।

आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है, बड़ी जल्दी बोर्ड हो जाता है। किसी भी चीज से ऊब जाता है। बड़ी जल्दी बोर्ड हो जाता है। किसी भी चीज से ऊब जाता है। अगर सुख ही सुख मिलता जाए, तो तबियत होती है कि थोड़ा दुख कहीं से जुटाओ। और आदमी जुटा लेता है! अगर सुख ही सुख मिले, तो तिक्त मालूम पड़ने लगता है; मुंह में स्वाद नहीं आता फिर। फिर थोड़ी-सी कड़वी नीम मुंह  पर रखनी अच्छी होती है। थोड़ा-सा स्वाद आ जाता है।

आदमी ऊबता है, सभी  चीजों से ऊबता है। बड़े से बड़े महल में जाए, उनसे ऊब जाता है। सुंदर से सुंदर स्त्री मिले, सुंदर से सुंदर पुरूष मिले, उससे ऊब जाता है। धन मिले, अपार धन मिले, उससे ऊब जाता है। यश मिले, कीर्ति मिले, उससे ऊब जाता है। जो चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है; मिलते ही ऊब जाता है।

इस बात को ऐसा समझें, संसार में जितनी चीजें हैं, उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। पाने की चेष्टा में कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। इंतजार जिंदगीभर चल सकता है; मिलन घड़ीभर चलाना  मुश्किल  पड़ जाता है।

संसार की प्रत्येक वस्तु को पाने के लिए तो हम नहीं ऊबते, लेकिन पाकर ऊब जाते हैं। और परमात्मा की तरह ठीक उलटा नियम लागू होता है। संसार कर तरफ प्रयत्न करने में आदमी नहीं ऊबता, प्राप्ति में ऊबता है। परमात्मा की तरह प्राप्ति में कभी नहीं ऊबता, लेकिन प्रयत्न में बहुत ऊबता है। ठीक उलटा नियम लागू होगा भी।

जैसे कि हम झील के किनारे खड़े हों, तो झील में हमारी तस्वीर बनती है, वह उलटी बनेगी। जैसे आप खड़े हैं, आपका सिर ऊपर होंगे। तस्वीर झील में उलटी बनेगी।

संसार के किनारे हमारी तस्वीर उलटी बनती है। संसार में जो हमारा प्रोजेक्शन होता है, वह उलटा बनता है। इसलिए संसार में गति करने के जो नियम हैं, परमात्मा में गति करने के वे नियम बिलकुल नहीं हैं। ठीक उनसे उलटे नियम काम  आते हैं। मगर यहीं बड़ी मुश्किल हो जाती है।

संसार में तो ऊबना आता है बाद में, प्रयत्न में तो ऊब नहीं आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में ही ऊब आती है। और प्राप्ति तो आएगी बाद में, और प्रयत्न पहले ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे।

कितने लोग नहीं हैं। जो प्रभु की यात्रा शुरू करते हैं! शुरू भर करते हैं, कभी पूरी नहीं कर पाते। कितनी बार आपने तय किया कि रोज प्रार्थना कर लेंगे! फिर कितनी बार छूट गया वह। कितनी बार तय किया कि स्मरण कर लेंगे प्रभु का घड़ीभर! एकाध दिन, दो दिन, काफी! फिर ऊब गए। फिर छूट गया। कितने संकल्प, कितने निर्णय, धूल होकर पड़े हैं आपके चारों तरफ!

मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि ध्यान से कुछ हो सकेगा? मैं उनको कहता हूं कि जरूर हो सकेगा। लेकिन कर सकोगे? वे कहते हैं, बहुत कठिन तो नहीं है? मैं कहता हूं, बहुत कठिन जरा भी नहीं। कठिनाई सिर्फ एक है, सातत्य! ध्यान तो बहुत सरल है। लेकिन रोज कर सकोगे? कितने दिन कर सकोगे? तीन महीने, लोगों को कहता हूं कि सिर्फ तीन महीने सतत कर लो। मुश्किल से कभी कोई मिलता है, जो तीन महीने भी सतत कर पाता है। ऊब जाता है, दस-पांच दिन बाद ऊब जाता है!

बड़े आश्चर्य की बात है कि रोज अखबार पढ़कर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज रेडियो सुनकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज फिल्म देखकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज वे ही बातें करके नहीं ऊबता, जिंदगीभर। ध्यान करके क्यों ऊब जाता है? आखिर ध्यान में ऐसी क्या कठिनाई है!

कठिनाई एक ही है कि संसार की यात्रा पर प्रयत्न नहीं उबाता, प्राप्ति उबाती है। और परमात्मा की यात्रा पर प्रयत्न उबाता है, प्राप्ति कभी नहीं उबाती। जो पा लेता है, वह तो फिर कभी नहीं ऊबता।

इसलिए बुद्ध को मिला ज्ञान, उसके बाद वे चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल किसी आदमी ने एक बार उन्हें अपने ज्ञान से ऊबते हुए नहीं देखा। कोहनूर हीरा मिल जाता चालीस साल, तो ऊब जाते। संसार का राज्य मिल जाता, तो ऊब जाते।

महावीर भी चालीस साल जिंदा रहे ज्ञान के बाद, फिर किसी आदमी ने कभी उनके चेहरे पर ऊब की शिकन नहीं देखी। चालीस साल जिंदा थे। चालीस साल निरंतर उसी ज्ञान में रमे रहे, कभी ऊबे नहीं! कभी चाहा नहीं कि अब कुछ और मिल जाए!

नहीं; परमात्मा की यात्रा पर प्राप्ति के बाद कोई ऊब नहीं है। लेकिन प्राप्ति तक पहुंचने के रास्ते पर अथक...।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, बिना ऊबे श्रम करना कर्तव्य है, करने योग्य है।

यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि कृष्ण कहते हैं, करने योग्य है। अर्जुन कैसे माने और क्यों माने? अर्जुन को तो नहीं है। अर्जुन तो जब प्रयास करेगा, तो ऊबेगा, थकेगा। कृष्ण कहते हैं।

इसलिए धर्म में ट्रस्ट का, भरोसे का एक कीमती मूल्य है। श्रद्धा का अर्थ होता है, ट्रस्ट। उसका अर्थ होता है, ट्रस्ट। उसका अर्थ होता है, कोई कह रहा है, अगर उसके व्यक्तित्व से वे किरणें दिखाई पड़ती हैं, जो वह कह रहा है, उसका प्रमाण देती है; वह जो कह रहा है, जिस प्राप्ति की बात, वहां खड़ा हुआ मालूम पड़ता है...।

अर्जुन भलीभांति कृष्ण को जानता है। कृष्ण को भी विचलित नहीं देखा है। कृष्ण को उदास नहीं देखा है। कृष्ण की बांसुरी से कभी दुख का स्वर निकलते नहीं देखा है। कृष्ण सदा ताजे हैं।

इसीलिए तो लोग ऐसा सोचते हैं, उन्हें इस मुल्क के चिंतन के ढंग का पता नहीं है। यह मुल्क तस्वीरें शरीरों की नहीं बनाता, मनोभावों की बनाता है। कृष्ण कभी भी बूढ़े नहीं होते, कभी बासे नहीं होते; सदा ताजे हैं। बूढ़े तो होते ही हैं,शरीर तो बूढ़ा होता ही है। शरीर तो  जराजीर्ण होगा, मिटेगा। शरीर तो अपने नियम से चलेगा। पर कृष्ण की चेतना अविचलित भाव से आनंदमग्न बनी रहती है, युवा बनी रहती है। वह कृष्ण की चेतना सदा नाचती ही रहती है।

कृष्ण की हमने इतनी तस्वीरें देखी हैं। कई दफे शक होने लगता है कि कृष्ण ऐसा एक पैर पर पैर रखे और बांसुरी पकड़े कितनी देर खड़े रहते होंगे! यह ज्यादा दिन नहीं चल सकता। यह कभी-कभी तस्वीर उतरवाने को, फोटोग्राफर आ गया हो, बात अलग है। बाकी ऐसे ही कृष्ण खड़े रहते हैं?

नहीं, ऐसे ही नहीं खड़े रहते हैं। लेकिन यह आंतरिक बिंब है, यह भीतर तस्वीर है। यह खबर देती है कि भीतर एक नाचती हुई, प्रफुल्ल चेतना है, एक नृत्य करती हुई चेतना है, जो सदा नाच रही है। भीतर  गीत गाता मन है, जो सदा बांसुरी पर स्वर भरे हुए है।

यह बांसुरी सदा ऐसी होंठ पर रखे बैठे रहते होंगे, ऐसा नहीं है। यह बांसुरी तो सिर्फ खबर देती है भीतर की। ये तो प्रतीक हैं, सिंबलिक हैं। ये गोंपियों चारों वक्त, चारों पहर चौबीस घंटे आस-पास नाचती रहती होंगी, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि कृष्ण इसी गोरखधंधे मे लगे रहे। नहीं; से प्रतीक हैं, बहुत आंतरिक प्रतीक हैं। असल में इस मुल्क की मिथ, इस मुल्क के मिथिक, इस मुल्क के पुराण प्रतीकात्मक हैं। गोपियों से मतलब वस्तुतः स्त्रियों से नहीं है। स्त्रियां भी कभी कृष्ण के आस-पास नाची होंगी। कोई भी इतना प्यारा पुरूष पैदा हो जाए, स्त्रियां न नाचे, ऐसा मौका चूकना संभव नहीं है। स्त्रियां नाची होंगी। लेकिन यह प्रतीक कुछ और है। यह प्रतीक गहरा है।

यह प्रतीक यह कह रहा है कि जैसे किसी पुरूष के आस-पास चारों तरफ सुंदर, प्रेम से भरी हुई, प्रेम करने वाली स्त्रियां नाचती रहें और वह जैसा प्रफुल्लित रहे, वैसे कृष्ण सदा हैं। वह उनका सदा होना है। वह उनका ढंग है होने का। जैसे चारों तरफ सौंदर्य नाचता हो, चारों तरफ गीत चलते हों, चारों तरफ संगीत हो, और घूंघर बजते हों, ऐसे कृष्ण चौबीस घंटे ऐसी हालत में जीते हैं। ऐसा चारों तरफ उनके हो रहा हो, ऐसे वे भीतर होते हैं।
-ओशो

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