Tuesday, October 11, 2022

प्रश्न: क्या सारी जिंदगी हारे ही हारे जीना होगा?

तुम पर निर्भर है। अगर जीत की बहुत आकांक्षा है तो हारे—हारे ही जीना होगा। अगर जीत की आकांक्षा छोड़ दो तो अभी जीत जाओ। फिर हार कैसी! हार का अर्थ ही होता है कि जीतने की बड़ी अदम्य वासना है। उसी वासना के कारण हार अनुभव में आती है। कभी खयाल किया, छोटा बच्चा अपने बाप से कुश्ती लड़ता है, बाप ऐसा थोड़ा दो—चार हाथ—पैर चलाकर जल्दी से लेट जाता है, छोटा बच्चा छाती पर बैठ जाता है और चिल्लाता है और प्रसन्नता से नाचता है कि गिराया, बाप को चारों खाने चित्त कर दिया। और बाप नीचे पड़ा प्रसन्न हो रहा है। चारों खाने चित्त होने में प्रसन्न हो रहा है, बात क्या है! क्योंकि बाप जानता है, हार स्वीकार की है उसने। तो हार में भी हार नहीं है।
लेकिन अगर कोई दूसरा आदमी तुम्हारी छाती पर चढ़ जाए, तो फिर जी

कचोटता है, हार हार मालूम होती है। हार इसीलिए मालूम होती है, क्योंकि तुम जीतना चाहते हो। अगर तुम हार को स्वीकार कर लो तो फिर हार कैसे मालूम होगी! तुम्हें अपमान इसीलिए तो अपमान मालूम होता है, क्योंकि तुम मान चाहते हो। अगर मान ही न चाहो तो अपमान कैसा!

इसे थोड़ा समझना! तुम्हें निर्धनता इसीलिए तो सालती है, खलती है, क्योंकि धन का पागलपन चढ़ा हुआ है। अगर धन का पागलपन न हो, तो निर्धनता क्यों सालेगी, क्यों खटकेगी? तुम्हें जो चीज अखरती हो, खयाल कर लेना, उससे उलटे की तुम्हारे भीतर चाह है। फिर तुम्हें अखरती ही रहेगी, फिर तुम्हारे पास कितना ही हो जाए!

अमरीका का बड़ा करोड़पति एंड्रू कारनेगी मरा तो दस अरब रुपए छोड्कर मरा, लेकिन मरते वक्त भी बेचैन था और परेशान था। और जब उसकी आत्मकथा लिखने वाले लेखक ने उससे दो दिन पहले पूछा, कि आप तो प्रसन्न मर रहे होंगे! क्योंकि आप दुनिया के सबसे बड़े धनी हैं, इतना नगद पैसा किसी के पास नहीं है जितना आपके पास है! एंड्रू कारनेगी ने कहा, कहां  की बातें कर रहे हो? मैं असफल आदमी! मैं रोता हुआ मर रहा हूं। क्योंकि मैंने योजना बनायी थी सौ अरब रुपए इकट्ठे करने की और दस ही अरब कर पाया। यह भी कोई जीत है, नब्बे अरब की हार है।


अब तुम सोचो, अगर सौ की योजना हो तो स्वभावत: दस अरब रुपए कुछ नहीं मालूम पड़ते। नब्बे अरब की हार! और अगर तुमने कुछ भी न पाना चाहा हो तो दस पैसे भी बहुत मालूम पड़ते हैं कि दस पैसे मिल गए। चाहा तो तुमने यह भी नहीं था।
इसलिए फकीर छोटी —छोटी चीज से प्रसन्न हो जाता है। संन्यासी छोटी—छोटी चीज से प्रसन्न हो जाता है। मान ही नहीं पाता कि मेरी कोई योग्यता तो थी ही नहीं और इतना मिल गया! कोई कारण तो न था कि मिले और मिल गया। तो उसे प्रभु की अनुकंपा मालूम होती है, प्रसाद मालूम होता है।

और दूसरी तरफ संसारी है, कितना ही मिलता चला जाए, और उसकी रींगा —झींगी, उसका रोना— धोना बना रहता है! वह सिर पीटता ही रहता है। कुछ न कुछ कमी खलती ही रहती है—कुछ और चाहिए, कुछ और चाहिए। चाह का कोई अंत नहीं है। इसलिए तुम कितना ही पा लो, चाह सदा आगे छलांग लगा जाती है और रोना जारी रहता है।
तुम पूछते हो कि 'क्या सारी जिंदगी हारे ही हारे जीना होगा?'
मैं तुमसे कहता हूं तुम पर निर्भर है। अगर जीतकर जीना है तो जीत की बात ही छोड़ दो। जीयो, जीत की बात ही छोड़ दो। इसी को तो समर्पण का जीवन कहते हैं। हार को स्वीकार कर लो। यहां जीत का मतलब ही क्या है! यहां कोई पराया है, जिससे जीतना है! यहां कोई दुश्मन है! यहां एक ही परमात्मा है, जीतना किससे है? उसके चरणों में सिर रख दो और तुम जीत गए। इसीलिए तो कहते हैं कि प्रेम में जो हार जाता है, वह जीत गया। प्रेम की हार जीत है।

तुम अहंकार की जीत पाना चाहते हो, हारोगे—हारते ही रहोगे, अहंकार की हर जीत से नयी हार निकलेगी। और प्रेम की हर हार नयी जीत का द्वार खोल देती है। इस विरोधाभास को समझना, यह जीवन का परम नियम है, क्योंकि यहां कोई पराया नहीं है। ये वृक्ष, ये चांद—तारे, ये लोग, ये पशु—पक्षी, ये सब तुम्हारे हैं, ये तुम हो, यह तुम्हारा ही फैलाव है। तुम इनके हो, ये तुम्हारे हैं, यहां अलग कौन है! यहां अलग— थलग होने का उपाय क्या है? किससे जीत रहे हो?
ऐसा समझो कि सागर की दो लहरें एक—दूसरे से कशमकश कर रही हैं, कुश्तम—कुश्ती कर रही हैं कि जीतना है और किसी को पता नहीं, दोनों को खयाल नहीं कि हम एक ही सागर की लहरें हैं, जीतना किससे?

समझो कि मेरे बाएं और दाएं हाथ कुश्ती करने लगें —चाहो तो करवा सकते हो कुश्ती दोनों हाथों की, क्या अड़चन है, लड़ा दो! और तब मुश्किल खड़ी हो सकती है कि कौन जीते, कौन हारे! फिर तुम्हारी मर्जी, चाहे बाएं को जिता लो, चाहे दाएं को जिता लो। मगर दोनों हालत में बात फिजूल थी। दोनों हाथ तुम्हारे, कैसी हार, कैसी जीत! यहां दूसरा नहीं है, दूजा नहीं है।
इस अनुभव का नाम ही समर्पण है कि यहां कोई दूसरा नहीं है, हम ही हैं। तो न अब कोई हार है, अब न कोई जीत है।
तुम पर निर्भर है। समर्पण जिसने किया, वह जीत गया। जो हारा, वह जीत गया।
            इस तरह तो दर्द घट सकता नहीं
            इस तरह तो वक्त कट सकता नहीं
            आस्तीनों से न आंसू पोंछिए
            और ही तदबीर कोई सोचिए
            यह अकेलापन अंधेरा यह उदासी यह घुटन
            द्वार तो हैं बंद, भीतर किस तरह झांके किरन
            बंद दरवाजे जरा से खोलिए
            रोशनी के साथ हंसिए, बोलिए
            मौन पीले पात सा झर जाएगा
            तो हृदय का घाव खुद भर जाएगा
            एक सीढी है हृदय में भी महज घर में नहीं
            सर्जना के दूत आते हैं सभी होकर वहीं
            ये अहं की श्रृंखलाएं तोड़िए
            और कुछ नाता गली से जोडिए  
            जब सड़क का शोर भीतर आएगा
            तब अकेलापन स्वयं मर जाएगा
            आइए कुछ रोज कोलाहल भरा जीवन जिएं
            अंजुरी भर दूसरों के दर्द का अमृत पिएं
            आइए बाल अफवाहें सुनें
            फिर अनागत के नए सपने बुने
            यह स्लेटी कोहरा छंट जाएगा
            तो हृदय का दर्द खुद घट जाएगा
तुमने अपने को अकेला मान रखा है, अलग मान रखा है, इससे तुम पीड़ित हो।
            आइए कुछ रोज कोलाहल भरा जीवन जिएं
क्या मतलब? मतलब कि थोड़ी देर को इस विराट से अपने को जोडे, इन पक्षियों की चहचहाहट से जोड़े, इन वृक्षों के फूलों से जोडे, इन चांद—तारों की किरणों से जोड़े।
            बंद दरवाजे जरा से खोलिए
            रोशनी के साथ हंसिए, बोलिए
थोड़ा जुडिए। ऐसे अलग— थलग छोटे से द्वीप बनकर मत रह जाइए, महाद्वीपँ' बनिए। थोड़ा जोडिए अपने को। एक क्षण तो अलग जी सकते नहीं, फिर अलग होने का मतलब क्या है?
श्वास तो प्रतिपल चाहिए न बाहर से, भोजन तो प्रतिदिन चाहिए न बाहर से, जल तो प्रतिदिन चाहिए न बाहर से! जो अभी बाहर था अभी भीतर हो जाता है, फिर भीतर था, फिर बाहर हो जाता है। बाहर— भीतर, बाहर— भीतर, लेन—देन पूरे समय चल रहा है। एक क्षण को तुम बाहर से टूटकर जी कैसे सकते हो? इसलिए न कुछ भीतर, न कुछ बाहर।
            एक सीढ़ी है हृदय में भी महज घर में नहीं
            सर्जना के दूत आते हैं सभी होकर वहीं
जरा भीतर झांकिए, एक सीढ़ी है, जहा से हम परमात्मा से जुड़े हैं, विराट से जुड़े हैं।
            यह अकेलापन अंधेरा यह उदासी यह घुटन
            द्वार तो हैं बंद, भीतर किस तरह झांके किरन
            नहीं!
            इस तरह तो दर्द घट सकता नहीं
            इस तरह तो वक्त कट सकता नहीं
            आस्तीनों से न आंसू पोंछिए
            और ही तदबीर कोई सोचिए
क्या तदबीर करें कि जीवन हार—हार का न रह जाए? हार जाओ, फिर कोई हार नहीं। यही तदबीर है। मिट जाओ, फिर तुम्हें कोई न मिटा सकेगा, मौत भी न मिटा सकेगी। अहंकार को जाने दो। फिर तुम्हें मिटाने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं, न कोई हराने की सामर्थ्य किसी में है।
यह अहंकार ही अपमान करवाता है, यह अहंकार ही असफलता लाता है, यह अहंकार ही हराता है, यह अहंकार हजार जहर के घूंट पिलाता है, फिर भी तुम अमृत समझकर पीए जा रहे हो, तो हारोगे, तो रोओगे, तो तुम्हारा सारा जीवन आंसुओ की एक लंबी श्रृंखला हो जाएगी।
यह श्रृंखला फूलों में बदल सकती है। जरा सा रुख बदलिए। जरा द्वार खोलिए। जरा जुडिए, मिलिए। जरा देखिए कि सब एक है। इस उदघोषणा का नाम ही वेदांत है। इस उदघोषणा का नाम ही धर्म है। इस उदघोषणा का नाम ही बुद्धत्व है।*



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